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दसवाँ बोल-१३१
और अधिक बिगड जायेगी और सम्भव है व्यभिचार आदि के पापो में भी पड जाये । इस प्रकार विचार कर उसने स्वय तो मासभक्षण का आदर नही किया, किन्तु रेवती को व्यभिचार आदि पापो से बचाने के लिए घर से बाहर भी नही निकाला । इस तरह पहले के जमाने में व्यभिचार हिंसा से भी बड़ा पाप माना जाता था।
आशय यह है कि वन्दना करने से नीचगोत्र का क्षय होता है और उच्चगोत्र का बध होता है। कितनेक लोगों का कहना है कि किये हुए कर्म एकान्तत भोगने ही पडते है, लेकिन कृत कर्म अगर बदल न सकते या क्षीण न हो सकते होते तो भगवान् वन्दना का फल यह न बतलाते कि वदना से नीचगोत्र का क्षय और उच्चगोत्र का बध होता है । मगर भगवान् ने वन्दना का यही फल बतलाया है, इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि कृत कर्म भी बदल सकते है और उनकी निर्जरा भी की जा सकती है । वन्दना करने से अर्थात् नम्रता धारण करने से भी कर्मो का क्षय होता है। - वन्दना का एक फल नीचगोत्र का क्षय और उच्चगोत्र का बध होना है- दूसरा फल सौभाग्य की प्राप्ति है। और तीसरा फल अप्रतिहत होना है अर्थात् वन्दना करने वाला किसी से पराजित नहीं होता । वन्दना का चौथा फल यह है कि वन्दना करने वाले को आज्ञा के अनुसार कार्य होता है, अर्थात् उसकी आज्ञा का कोई लोप नही करता । वन्दना का पाचवा फल दाक्षिण्य गुण आना है अर्थात् वन्दना करने से होशियारी सव सर्वप्रियता प्राप्त होती है।
गुरु को विधिपूर्वक वन्दना करने का ऐसा फल मिलता