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ग्यारहवां बोल-१३५
करता हुआ आठ प्रवचनमाता (पाच समिति और तीन गुप्ति) रूप संयम मे उपयुक्त, अप्रमत्त और सुप्रणिहित होकर विचरता है अर्थात् निजस्वरूप को प्राप्त करता है ।
व्याख्यान प्रतिक्रमण करने से जीव को क्या लाभ होता है ? इस प्रश्न के उत्तर में भगवान ने सक्षेप में कहा है। प्रतिक्रमण करना ही चाहिए । किस उद्देश्य से प्रतिक्रमण करना चाहिए और प्रतिक्रमण करने से क्या लाभ होता है, इस विषय मे अभी ऊहापोह न करते हुए सिर्फ इतना कहता है कि भगवान् की आज्ञा के अनुसार प्रथम और अन्तिम तीर्थइरो के साधुओ को प्रतिक्रमण करना ही चाहिए । बीच के बाईस तीर्थङ्करो के साधु ऋजु-सरल होते हैं । अतएव जब उन्हे दोष लगता है तब वे प्रतिक्रमण करते है और जब दोष नही लगता तो प्रतिक्रमण नही करते । मगर प्रथम और अन्तिम तीर्थङ्करो के साधुओ को तो प्रतिक्रमण करना ही चाहिए।
अब विचार करना चाहिए कि प्रतिक्रमण का अर्थ क्या है ? दूसरे लोग जिस प्रकार सध्या-वदन आदि करते है, वही स्थान जैनदर्शन में प्रतिक्रमण का है । परन्तु सध्यावदन और प्रतिक्रमण मे भेद है। प्रतिक्रमण का स्वरूप और उसका उद्देश्य बतलाते हुए कहा है -
स्वस्थानात् परस्थानं प्रमादस्य वशाद गतं, तत्रैव क्रमणं भूयः प्रतिक्रमणमुच्यते ।। क्षायोपश मिकाद् भावादीदयिकस्य वशंगतः। तत्रापि च स एवार्थ प्रतिकूलं गमात्स्मतः ।।