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१०६-सम्यक्त्वपराक्रम (२) को वन्दना भी नही कर सकते । हम अभेद-निक्षेप को ही वन्दना करते हैं । भेद-निक्षेप को हम स्वीकार तो करते हैं किन्तु अर्थक्रिया की सिद्धि तो अभेदनिक्षेप से ही हो सकती है और इसलिए अभेद को ही नमस्कार करते हैं ।
अब द्रव्यतीर्थड्रो की वात लीजिए । जो चौवीस तीर्थङ्कर हो चुके हैं, वे जव तक केवली नहीं हुए थे, वरन राज्य अवस्था में थे, तब तक द्रव्यतीर्थङ्कर थे। ऐसे द्रव्यतीर्थंकरो का स्तवन करना द्रव्यस्तवन है । हम द्रव्यतीर्थङ्कर को नमस्कार नहीं करते और न उनका स्तवन ही करते है, किन्तु जब उनमे तीर्थडर के योग्य गुण प्रकट हो जाते है तभी उन्हे नमस्कार करते है और तभी उनका स्तवन करते है।
तीर्थरो को किस प्रयोजन से नमस्कार किया जाता है अथवा उनका स्तवन किसलिए किया जाता है, यह बात प्रतिक्रमण मे बोली ही जाती है.--
लोगस्स उज्जोयगरे, धम्मतित्थयरे जिणे । अरिहते कित्तइस्सं, चउवीसं पि केवली ।।
अर्थात- चौवीस तीर्थङ्कर भगवान लोक मे उद्योत करने वाले है, मैं उनका स्तवन करता है। ऐमा होने पर भी जब तक प्रकाश नहीं होता तब तक वह वस्तु दिखाई नही देती । प्रकाश होने पर ही वस्तु प्रत्यक्ष दिखाई देती है । भगवान् पचास्तिकाय रूप लोक को प्रकाशित करने वाले है। हम लोग भगवान् के ज्ञान-प्रकाश से ही पचास्तिकाय को जान पाते है।
श्रीभगवतीसूत्र मे मंडूक श्रावक का प्रकरण आता है।