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७८-सम्यक्त्वपराक्रम (२)
- यह उत्तर सुनकर माता ने कहा- बेटा, अब इसे मत मारो । इसने मुझे माँ कहा है । अव यह मेरा बेटा और तेरा भाई बन गया है । यह गरणागत है । अब इसे छोड दे। मैं जल्दी भोजन बनाती हू सो तुम दोनो भाई साथ बैठकर भोजन करो ।
पुत्र ने कहा मा, तुमने मुझे उत्तेजित किया है। मेरा जोध. भडका हुआ है । वह शान होना नहीं चाहता । अब मैं अपने क्रोध को किस प्रकार सफल करूँ ?
माता ने उत्तर दिया-क्रोध को सफल करने में कोई वीरता नही है । सच्ची वीरता तो क्रोध को जीतने में है। दूसरे पर विजय प्राप्त करना उतनी वडी वीरता नही, जितनी क्रोध पर विजय प्राप्त करना वीरता है। इसलिए तू त्रोध को जीत ।
क्षत्रियकुमार ने उस क्षत्रिय से कहा- मैं अपनी माता का आदेश मानकर तुझे छोडता हू ओर अभयदान देता हूं।
जो स्वय निर्भय हे वही दूमरो को अभयदान दे सकता है । अभयदान यद्यपि सब दानो मे उत्तम माना गया है मगर उसका अधिकारी वही है जो स्वय अभय है । जो स्वय भय मे काप रहा हो वह दूसरे को क्या खाक अभयदान दे सकेगा? तुम लोग स्वय तो भय से थर्राते हो और बकरो का अभयदान देने दीडते हो | इसमे करुणाभाव तो है. मगर यह पूण अभयदान नही है । तुम पहले स्वय निर्भय बनो फिर अभयदान देने के योग्य बन सकोगे ।
क्षत्रियकुमार की माता ने भोजन बनाया । क्षत्रियकुमार ने और उसके पिता के घात करने वाले क्षत्रिय ने