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८६- सम्यक्त्वपराक्रम (२) है । आत्मा के पतन का कारण शारीरिक मोह है। आत्मा को शारीरिक मोह में फंसाकर गिराना उचित नहीं है । आत्मा और शरीर भिन्न-भिन्न है। आत्मा अमर और अविनाशी है, जव कि शरीर नाशवान् है । गीता में भी कहा हैन जायते म्रियते वा कदाचित् ,
नायं मुक्त्वा भविता वा न अन्यः । अजो नित्यः शाश्वतोऽय पुराणो
न हन्यते हन्यमाने शरीरे ॥ अर्थात् -- शरीर ही जनमता और मरता है । आत्मा न जनमता है, न मरता है । आत्मा तो अजर और अमर है ।
जैनशास्त्र की दृष्टि से भी आत्मा अनादिकाल से है। अनन्तकाल व्यतीत हो जाने पर भी आत्मा जैसा का तैसा है । आत्मा नरक में जाकर न मालूम कितनी बार तेतीस सागर की स्थिति भोग चुका है । फिर भी उसका स्वरूप ज्यो का त्यो है । गीता कहती है, आत्मा का नाश नही होता । आत्मा ऐसी ज्योति है जो कभी बुझती नहीं । किसी दिन उसका नाश नही हुआ, होगा भी नहीं। आत्मा अजन्मा है, नित्य है, शाश्वत है । बहुतसी वस्तुये ऐसी भी है जो नित्य होने पर भी आज किसी रूप मे है और कल किसी
और रूप मे होगी। मगर शुद्ध सग्रहनय की दृष्टि से आत्मा सदैव एक स्वभाव मे रहता है । इस प्रकार आत्मा शाश्वत है और साथ ही पुरातन अर्थात् सनातन है ।
इस सनातन आत्मा को मामूली बात के लिए पतित करना कितनी भयकर भूल है ? इस भूल के सशोधन का