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प्राठवां बोल - ६७
किसी रूप मे, थोडी-बहुत मात्रा में, समभाव विद्यमान रहता है और उस समभाव की बदौलत ही उसका तथा उसकी जाति का अस्तित्व है । उदाहरणार्थ सिहनी को लीजिए । सिंहनी क्रूर स्वभाव वाली है, यह सभी कहते है । लेकिन क्या वह अपने बच्चो के लिए भी क्रूर है ? क्या वह अपने बच्चो पर समभाव नही रखती ? वह अपने बच्चो पर समभाव न रखती और उनके साथ भी करता का ही व्यवहार करती तो आज उसकी जाति का अस्तित्व होता ? इस प्रकार ससार मे सर्वत्र समभाव की मात्रा पाई जाती है और समभाव के कारण ही ससार का अस्तित्व है । यो प्रत्येक प्राणी मे न्यूनाधिक समभाव पाया ही जाता है परन्तु ज्ञानी पुरुष समभाव पर ज्ञान का कलश चढाना चाहते है । ज्ञानपूर्वक समभाव ही सामायिक है ।
आप लोग सामायिक मे बैठते है पर उस समय आपका प्राणीमात्र पर समभाव रहता है या नही ? आप सामायिक मे वैठे हो। उसी समय कोई व्यक्ति आकर आपके कानो मे से मोती निकाल ले जाये तो आप चिल्लाहट मचायेंगे ? उस समय आपको विचारना चाहिए - मोती ले जाने वाला बेचारा दुखी होगा। उसे उसकी आवश्यकता होगी, इसलिए वह ले गया है । इस प्रकार विचार करके आप मोती ले जाने पर क्रोध न करें तो समझना चाहिए कि आप में समभाव है । ऐसी अवस्था प्राप्त कर लेने पर ही आपकी सच्ची सामायिक होगी । यही नही, कोई पुरुष शरीर पर आघात करने आये, फिर भी उस पर विषमभाव उत्पन्न न होना सामायिक की कसौटी है । कदाचित् कोई सहसा इस उच्च स्थिति पर न पहुँच सके तो भी लक्ष्य तो यही होना