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सातवाँ बोल
गर्हा
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निन्दा के सम्बन्ध में जो प्रश्नोत्तर चल रहा था वह समाप्त हुआ । आत्मनिन्दा, गर्हापूर्वक करनी चाहिए । अतएव यहाँ गर्दा के सम्बन्ध में विचार करना है । गह के सम्व व में भगवान् से यह प्रश्न पूछा गया है :प्रश्न- गरहणयाए ण भंते ! जीवे कि जणयइ ? उत्तर - गरहणयाए पुरेकारं जणय, अपुरे कारगए णं जीवे श्रपत्थहितो जोगेहितो नियत्तेइ, पसत्थे य पडिव - भाइ, पसत्थजोगपडिवन्ने य ण श्रणगारे श्रणंतधाई पज्जवे खवेइ ॥ ७ ॥
शब्दार्थ
प्रम्न- भगवन् । गर्हणा करने से जीव को क्या लाभ होता है ?
उत्तर - गर्हणा करने से जीव दूसरो से सन्मान नहीं पाता । कदाचित् उसमे खराव भाव उत्पन्न हो जाएँ तो भी वह अपमान के भय से खराव विचारो को हृदय से बाहर निकाल देता है अर्थात् शुभ परिणाम वाला हो जाता है । प्रशस्त परिणाम से ज्ञानावरण आदि कर्मों का क्षय करके वह अनन्त मुखरूप मोक्ष प्राप्त करता है ।