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सातवां बोल-६६
व्याख्यान भगवान् से शिष्य ने यह प्रश्न पूछा है कि-'हे भगवन ! गर्हा-अपने दोषो का दूसरे के समक्ष प्रकाशन-करने से जीव को क्या लाभ होता है ?' भगवन् ने इस प्रश्न के उत्तर मे जो कुछ कहा है, उस पर विचार करने से पहले यह देख लेना आवश्यक है गर्दा वास्तव मे किसे कहते हैं ? निन्दा और गर्दा में क्या अन्तर है ? इसका स्पष्टीकरण करते हुए टीकाकार कहते है- अनेक पुरुष ऐसे है जो अपनी आत्मा को नीच मानते है और कहते है
जेती वस्तु जगत मे, नीच नीच ते नीच । तिनते मैं हू अधम अति, फस्यो मोह के बीच ॥
अर्थात् ससार मे नीच से नीच गिनी जाने वाली जितनी वस्तुएँ हैं, उनमे मेरी आत्मा सब से नीच है।
पापोऽहं पापकर्माऽहं, पापात्मा पापसन्भवः ।
अर्थात हे प्रभो । मैं पापी हू, पापकर्मा ह और जिन पापो को मैं बार-बार धिक्कारता हू उन्ही पापो को पुनः करने वाला हू । इससे बढकर पतितदशा और क्या हो सकती है ?
इस ससार में अनेक महात्मा भी ऐसे है जो अपने विषय मे ऐसा अनुभव करते है। उनकी विचारधारा कुछ ऐसी होती है कि मेरे पाप या दोष मैं और परमात्मा ही क्यो जाने ? अपने पापो की प्रकटता यही तक सीमित क्यों रहे ? दूसरे लोगो को भी मेरे पापो का पता क्यो न चल जाये ? मेरा नग्नस्वरूप जगत् क्यो न देखे ? इस प्रकार की विचारधारा से प्रेरित होकर गुरु आदि के समक्ष