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७२-सम्यक्त्वपराक्रम (२)
प्राय. देखा जाता है कि लोग निन्दनीय कार्य तो कर बैठते हैं मगर निन्दा सुनने से डरते हैं और निन्दा सुनने के लिए तैयार नहीं होते। शास्त्र कहता है-जब किसी व्यक्ति के अन्त करण मे यह भावना उद्भूत होती है कि मैंने जो निन्दनीय कार्य किये हैं, उनके कारण होने वाली निन्दा मै सुन लूं, तब वह गर्दा किये बिना नही रहता और जब वह इस तरह शुद्ध भाव से गर्दा करता है तब गर्दा से उत्पन्न होने वाले अपुरस्कारभाव द्वारा वह अप्रशस्त योग में निवृत्त हो जाता है।
शूली पर चढकर शस्त्राघात सहन करके या विषपान करके मर जाना कदाचित् सरल है, परन्तु शान्तभाव से अपनी निन्दा सुनना सरल नही है। अपनी निन्दा सुनकर अशुभ योग का आ जाना बहुत सम्भव है । मगर अपनी निन्दा सुन लेने वाली और जिन कामो की बदौलत निन्दा हुई है, उनका त्याग कर देने वाला अपने अन्त करण मे अशुभ योग नहीं आने देता । इसका फल यह होता है कि वह अप्रशत योग से निकलकर प्रशस्त योग में प्रविष्ट हो जाता है।
ससार में विरले ही ऐसे पुरुष मिलेगे जो अपनी निंदा सूनने के लिए तैयार हो । अधिकाश लोग ऐसे ही है जो चाहते हैं कि हम खराव कृत्य भले ही करे किन्तु हमे कोई खराब न कह पाये । यह दुर्भावना आत्मा के लिए विष के समान है। इस विष से आत्मा मे अधिक बुराइया आ घुसती है। इससे विपरीत जिनकी भावना यह है कि मुझे प्रशसा नही चाहिए, निन्दा ही चाहिए, वे लोग गर्दा किये बिना नही रहते । गर्दा करने वालो मे अपुरस्कारभाव आता है