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७०-सम्यक्त्वपराक्रम (२) अपने दोप निवेदन करना गहीं कहलाता है । अपने दोपों की आप ही निन्दा करना निन्दा है, चाहे दूसरा कोई छद्मस्थ जाने या न जाने । मगर गीं तो दूसरो के सामने अपने दीप प्रकट करने के लिए ही की जाती है। . इस भेद को देखते हुए गर्दा का फल निन्दा के फल से अधिक होना चाहिए । गर्हा का फल अधिक न हो तो उसके करने से लाभ ही क्या है ? फल का विचार किये विना मन्द पुरुष भी किसी कार्य मे प्रवृत्ति नहीं करता। यताव गर्दा का फल निन्दा की अपेक्षा अधिक ही होना चाहिए ।
प्रस्तुत प्रश्न के उत्तर में भगवान फरमाते है-गहीं करने से अपुरस्कारभाव उत्पन्न होता है । किसी व्यक्ति की प्रगसा होना-जमे यह उत्तम पुरुष है, यह गुणवान् पुरुप है, आदि कहना--पुरस्कारभाव कहलाता है । अपुस्कार मे इस प्रकार के पुरस्कार का अभाव है । 'अपुरस्कार' शब्द में 'अ' अभाव का सूचक है। गहीं करने से अपुरस्कारभाव प्रकट होता है । पहलेपहल तो ऐसा भय बना रहता था कि कोई मेरा अपराध जान लेगा ता मुझे तुच्छ समझकर मेरी निन्दा करेगा । किन्तु जव गर्दा करने का विचार आता है। तो वह भय जाता रहता है । उस समय व्यक्ति की यही इच्छा होती है कि लोग मुझे प्रशसनीय न माने वरन निदनीय समझे । इसी फल की प्राप्ति के लिए गहीं की जाती है । अर्थात् लोगो की दृष्टि में अपने को निन्दनीय मानने के लिए गहीं की जाती है। । कहा जा सकता है कि यह तो गर्दा का उलटा फल मिला । गर्दा करने से तो उलटी अधिक निन्दा हुई.! गहीं