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"छठा बोल-४७
रही कि किसी तरह पाण्डवों का नाश हो और मेरे पुत्र निष्कण्टक राज्य भोगे । मैं पाण्डवो की अभिवृद्धि फूटी आँखों से भी नही देख सकता था। मैंने पाण्डवो को जो कुछ दिया, वह बहुत थोडा था, फिर भी पाण्डवो ने अपने पराक्रम से, ( लोकमत अनुकूल करके उसमें बहुत वृद्धि कर ली थी। पाडवों
की इस अभिवृद्धि से मुझे प्रसन्न होना चाहिए था । मगर । मेरे दिल में तो द्वेष का दावानल · दीप्त हो रहा था । मैं उनका अभ्युदय नही देख सका । मैं अपने जिन पुत्रों को राज्य देने के लिए पाण्डवो का नाश चाहता था, मेरे वह पुत्र भी ऐसे थे कि राज्य के लिए उन्होने भीम को विष खिला दिया था, और पाण्डवो को भस्म कर डालने के लिए लाक्षागृह बनाया था। यह सब मायाजाल रचने के उपलक्ष्य मे मैंने अपने पुत्रों की थोडो निन्दा की थी, लेकिन भावना मेरी भी यही थी कि किसी भी उपाय से पाडवो का नाश -हो जाये। इस प्रकार मै हृदय से पाडवो का अहित ही चाहता
था, तथापि भीष्म, द्रोणाचार्य तथा अन्य सज्जनो के समक्ष मेरी निन्दा न हो और मैं नीच न गिना जाऊँ, इस विचार से प्रेरित होकर कपटक्रिया करता रहता था । अगर मैं कपटक्रिया से वचा होता और निष्कपट व्यवहार किया होता तो आज मुझे पुत्रनाश का दुस्सह दुख न देखना पड़ता।'
धृतराष्ट्र का इस प्रकार का पश्चात्ताप और उस पश्चात्ताप का विवरण ग्रन्थो मे सुरक्षित रहना जगत् के हित के लिए उपयोगी प्रतीत होता है । धृतर'ष्ट्र कहते है- 'मैं पहले समझ सका होता कि मेरी इस कपटक्रिया का यह भयंकर परिणाम होगा तो मैं इस भीषण पाप से बच गया होता। हे.दुर्योधन । तेरे ही पाप के कारण भीम ने तेरा 'सहार किया