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६२ - सम्यक्त्वपराक्रम (२)
अर्थात् - हे प्रभो । मैं अवगुणों को छिपाने से लिए जिनमत की क्रिया करता हूं और ऐसा करके अपने अवगुण छिपाता हू — उनका त्याग नही करता । मेरी यह कैसी विपरीत क्रिया है !
महामति आत्मा का विचार कुछ विलक्षण ही होता है | विचारशील व्यक्ति के विचारो का आभास देने के लिए द्रौपदी और युधिष्ठिर के बीच जो वार्त्तालाप हुआ था, यहां उसका उल्लेख किया जाता है ।
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द्रोपदी वुद्धिमती थी । उसे समझा सकना सहज काम नही था, क्योकि वह सहज ही कोई बात नही मान लेती थी । वह उस बात के विरुद्ध तर्क भी करती थी । भीम, अर्जुन और युधिष्ठिर से कहा करते थे- 'हम आपकी आज्ञा के अधीन हैं । हर हालत मे हम आपका आदेश शिरोधार्य करेगे ही, परन्तु द्रौपदी को आप यह वात भलीभाँति समझा दीजिए | इस प्रकार कोई बात द्रौपदी के गले उतारना टेढी खीर समझी जाती थी ।
एक दिन द्रौपदी विनयपूर्वक हाथ जोडकर धर्मराज के पास आकर बैठी । धर्मराज ने उससे पूछा - ' देवी । स्वस्थ हो न ?"
द्रौपदी- महाराज 1 मन मे कुछ रखना और जीभ मे कुछ कहना मैने नही सीखा । मेरे हृदय में तो ज्वाया धधक रही है । इस स्थिति मे कैसे कहू कि मैं स्वस्थ हूँ !
धर्मराज- तुम्हारा कहना सच है । तुम्हारे हृदय में जो ज्वाला धधक रही है, उसका मैं ही हू । मेरे ही कारण तुम सब को वनवास भोगना पडा है ।