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चाहता है, वह धर्म को नही जानता। इसके अतिरिक्त काका ने तुम्हे जो वरदान दिया था, वह हृदय परिवर्तन के कारण नही वरन् भय के कारण दिया था। उनके हृदय में सचमुच ही परिवर्तन हुआ होता तो वह दूसरी बार भी हम लोगो को वन मे न जाने देते । वास्तव में उनका हृदय बदला नही था । बल्कि उनके हृदय मे यह भावना थी कि किसी भी उपाय से पाण्डव दूर चले जाएँ और मेरे पुत्र निष्कटक राज्य भोगे । हृदय मे इस प्रकार की भावना होते हुए भी, लोकापवाद के भय से ही काका ने मीठे वचन कहकर तुम्हे वरदान दिया था । अतएव मैंने सोचा- मुझसे जो अपराथ हुआ है, उसके दण्ड से बच निकलना उचित नही है । मुझे अपनी भूल का फल भोगना ही चाहिए। मैं दुर्योधन से यह कहना चाहता था कि तुझे जो करना हो सो कर, लेकिन मैं पत्नी को मिले वरदान के कारण वनवास से नही बचना चाहता । मैं मन ही मन यह कहने का विचार कर ही रहा था कि उसी समय दुर्योधन का आदमी मेरे पास आया । उसने मुझसे कहा 'पापको दुर्योधन महाराज फिर जूआ खेलने के लिए बुलाते है ।' दुयोधन का यह सन्देश सुनकर मुझे प्रसन्नता हुई । मैने निश्चय किया-इस बार फिर सर्वस्व हार ज ना ही उचित है, जिससे मैं वन मे जा सक और पत्नी के वरदान के कारण मिली हुई वनवास-मुक्ति मे मुक्त हो सक । मेरे भाई मेरे निश्चय का अनुसरण करे या न करे, परन्तु मुझे तो वनवास करना ही चाहिए। इस प्रकार निश्चय करके मैंने फिर जुआ खेला और उसमे हार गया । मन मे निश्चित किये विचारो को पूर्ण करने के लिए ही मैंने दुवारा जूआ खेला था।'