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'५४ - सम्यक्त्वपराक्रम (२)
रूप और दूसरी अवस्था में दुखरूप प्रतीत होने वाला सच्चा सुख नही है । भूख लगने पर लड्डू मीठा और रुचिकर लगता है, किन्तु भूख शान्त होने के पश्चात् वही लड्डू मुसीवत वन जाते है । लड्डू एक समय रुचिकर श्रीर दूसरे ' समय अरुचिकर क्यो लगते है ? लड्डू अगर दुखरूप प्रतीत ' होने लगते है तो उन्हे सुखरूप कैसे कहा जा सकता है ? इस • उदाहरण पर विचार करके मानना चाहिए कि विपयजन्य 'सुख, सुख नही मुखाभास है ।
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एक आदमी भोजन करने बैठा है । प्रिय और मधुर पकवानो से सजा हुआ थाल उसके सामने है । मुन्दरी पत्नी सामने बैठ कर पखा झल रही है । इसी समय उसके मुनीम ' ने श्राकर समाचार दिया - परदेश मे आपके पुत्र की मृत्यु हो गई है । इस स्थिति मे वह भोजन विप के समान प्रतीत हो और आखो से आसू वहे, यह स्वाभाविक है । अब विचार कीजिए कि भोजन और भामिनी में अगर सुख होता तो वे उस समय दु.खरूप क्यो प्रतीत होने लगते ? जब कि वह दुखरूप प्रतीत होते है तो उन्हे सुखरूप कैसे माना जा सकता है ?
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इस प्रकार ससार के किसी भी पदार्थ मे सुख नही है । सासारिक पदार्थों मे जो सुख प्रतीत होता है वह विकारी सुख है, अविकारी सुख नही । अविकारी सुख तो सम्यग्ज्ञान, दर्शन और चारित्र मे ही है । इस सुख की प्राप्ति उसी समय होती है जब सासारिक पदार्थों के प्रति वैराग्य पैदा हो जाये । यह सुख प्राप्त होने पर किसी प्रकार का दुख शेप नही रहता । अतएव सच्चे हृदय से आत्मनिन्दा करो, जिससे पश्चात्ताप हो, पश्चात्ताप से वैराग्य हो और वैराग्य