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६०-सम्यक्त्वपराक्रम (२)
मे कर्म जो कुछ करते है वह तुम नहीं देख सकते किन्तु कर्म का फल देख सकते हो और उसका अनुभव भी कर सकते हो।
साराश यह है कि ज्ञानी पुरुषो के वचनो पर विश्वास करके हम यह मानते हैं कि आत्मा में कर्म इस प्रकार की क्रिया करते है । जिन ज्ञानियो ने हमें बतलाया है कि कर्मों का फल दुखदायी होता है, उन्ही ज्ञानियो ने यह भी प्रकट किया है कि पश्चात्ताप करने से आत्मा को अपूर्वकरण गुणश्रेणी की प्राप्ति होती है। जैसे औषधि रोगो को भम्म कर डालती है, उसी प्रकार अपूर्वकरण गुणश्रेणी पूर्वसचित पापो को खीचकर जला डालती है अर्थात् मोहनीय कर्म का नाश कर देती है । मोहनीय कर्म का नाश होने पर शेष कर्म भी उसी प्रकार हट जाते है, जैसे सेनापति के मर जाने पर सैनिक भाग छूटते है। अथवा जैसे सूर्योदय होने से तारागण छिप जाते हैं और चन्द्रमा का प्रकाश फीका पड़ जाता है उसी प्रकार पश्चात्ताप से होने वाली अपूर्वकरण गुणवेणी द्वारा मोहनीय कर्म नष्ट हो जाता है और उसके नाश होने पर अन्यान्य कर्म भी नष्ट हुए बिना नही रहते ।।
पश्चात्ताप का फल बतलाते हुए टीकाकार ने एक सग्रहगाथा कही है
उवरिमठिइय दलियं हिट्ठिमठाणेसु कुणइ गुणसेढि । गुणसकम फरई पुण असुहायो सुहम्मि पक्खिवई ।।
अपूर्वकरण गुण येणी ऊपर के स्थान के कर्मपुदगलों को बीचकर अब स्थान पर ले आती है । जैसे- कोई व्यक्ति एक पुरुप को पकडना चाहता था । मगर वह गक्तिशाली