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छठा बोल-५३ हैं । कहा भी है-'दु.खमेव सर्व विवेकिन.।' अर्थात विवेकी पुरुप के लिए ससार के समस्त पदार्थ दुखरूप ही प्रतीत होते हैं।
प्रश्न किया जा सकता है- प्रत्यक्ष या अनुमान प्रमाण से यह प्रतीत नही होता कि सासारिक पदार्थ दुखरूप है । ऐसी स्थिति में उन्हे दुखरूप किस प्रकार माना जा सकता है?
इस प्रश्न का उत्तर यह है कि ससार के जो पदार्थ एक जगह सुखदायक है, वही दूसरी जगह दु.खप्रद मालूम होते है। यह बात ध्यान में रखते हुए विवेक के साथ विचार किया जाये तो आत्मा को सासारिक पदार्थों के प्रति वैराग्य उत्पन्न हुए बिना नही रह सकता । सासारिक पदार्थ एक जगह सुखदायक होते हुए भी दूसरी जगह दु.खजनक हैं, यह बात सिद्ध करने की अवश्यकता नही है । ऊन की बारीक और मुलायम शाल उत्तम श्रेणी की मानी जाती है, परन्तु उसी ऊन का एक बारीक तन्तु यदि आँख मे पड़ जाये तो कैसा लगता है ? जिस ऊन का तन्तु शरीर पर सुखद मालूम होता था, वही आख मे पड़ कर घोर वेदना उत्पन्न करता है। यही हाल अन्य वस्तुओ का है । इसीलिए ससार के पदार्थ दुखजनक कहे गये हैं। ससार के पदार्थ यदि सचमुच ही सुखद होते तो किसी भी समय और किसी भी अवस्था मे दुखदायी न होते । मगर बात ऐसी नही है । अतएव स्पष्ट है कि सांसारिक पदार्थ सुखकर नही दुखदायक है।
ससार के पदाथो मे सुख नही है तो सुख क्या है, कहा है और किस प्रकार प्राप्त किया जा सकता है ? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि वास्तविक सुख वह है जो कभी दु.ख रूप परिणत न हो । जिसमे से कभी दु.ख के अकुर नही फूट सकते, वही सच्चा सुख है । एक अवस्था में सुख