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४६ - सम्यक्त्वपराक्रम (२)
धृतराष्ट्र ने अपने अन्तिम समय में, कुन्ती के सामने श्रालोचना करके अपने पापो की शुद्धि की थो। उस आलोचना के संबध मे विचार करने से एक नई बात सामने आती । अपने पापो की आलोचना करते हुए धृतराष्ट्र ने सजय से कहा - ' हम लोग जब वन में भ्रमण कर रहे थे तो एक ऐशा श्रन्धकूप हमे मिला था जो ऊपर से घास से ढका था । उस अन्धकूप को खर व कहा जाये या अपने ग्रापको खराब कहा जाये ? मेरा सम्पूर्ण जीवन लोगो को अन्धकूप को भाति, भ्रम में डालने मे व्यतात हुआ है । मैं ऊपर से तो पाँडवो की भलाई चाहता था और शास्त्रविधि के अनुसार उन्हें आशीर्वाद भी देता था, मगर हृदय मे यही था कि पाड़वों का नाश हो और मेरे ही बेटे राज्य करे ।'
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तुम्हारा व्यवहार तो घृतराष्ट्र के समान नही है ? धृतराष्ट्र. की कूटनीति ने कितनी भयंकर हानि पहुँचाई थी, यह कौन नही जानता ? उसकी कूटनीति के कारण ही महाभारत सग्राम हुआ था, जिसमे अठारह अक्षौहिणी सेनाओ का बलिदान हुआ था, अनेक तरुणिया विधवा हो गई थी और अनेक वालक अनाथ वन गये थे, व्यापार चौपट हो गया था और चारो ओर चोर डाकुओ का महान उपद्रव मच गया था । वृतराष्ट्र ने कहा- यह सब अनर्थ मेरी ही कलुषित बुद्धि के कारण हुए है । मेरी बुद्धि में कलुषता न हाती तो यह अनर्थ भी न होते । साधारण मनुष्य के पाप का फल उसी तक सीमित रहता है मगर महान् पुरुष के पापों का फल सारे समाज और देश को भुगतना पड़ता है । इस नियम के अनुसार मेरे पापो का फल भी सर्वसाधारण को भोगना पडा है । मेरे हृदय में सदैव यह दुर्भावना बनी
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