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४४-सम्यक्त्वपराक्रम (२) देखने मे तो भूल नहीं होतो परन्तु आत्मनिन्दा करने में भूल
हो जाती है । आत्मा अपनी निन्दा न करके परनिन्दा करने __ को उद्यत हो जाता है । जब तुम्हारे अन्तकरण मे निन्दा
करने की प्रवृत्ति है तो फिर उसका उपयोग आत्मनिन्दा करके निर्दोष और निरपराध वनने मे क्यो नही करते? परनिंदा करके अपने दोपो की वृद्धि क्यो करते हो ? जब दुर्गुण ही देखते हैं तो अपने ही दुगुण क्यो नही देखते ? और उन्ही दुर्गुणो की निंदा क्यो नही करते? अपनी त्रुटिया दूर करने के लिए हमारे सामने क्या आदर्श है, यह बतलाने के लिए कहा गया है कि
मनस्यन्यद्वचस्यन्यत्कार्यमन्यद् दुरात्मनाम् । मनस्येक वचस्येकं काय एक महात्मनाम् ॥
अर्थात्-दुरात्मा अपने मन की वचन की और कार्य की प्रवृत्ति भिन्न-भिन्न रखता है अर्थात उसके मन में कुछ होता है, वचन से कुछ कहता है और कार्य कुछ और ही करता है। किन्तु महात्मा पुरुषो के मन, वचन और काय मे एक ही वात होतो है। '
आत्मनिन्दा करने मे इस नीतिवाक्य को आदर्श मानकर विचार करो कि मैं जिह्वा से जो कुछ कहता हू वह मेरे. कार्य के अनुसार है या नही ? ऐसा तो नही है कि मैं कहता कुछ और करता कुछ और हूं? गिनती में कोई भूल नहीं होती । तुम पाच और पाँच का योग दस ही कहते हो- नौ या ग्यारह नही । इसी प्रकार समस्त संसार में यदि सत्य का ही व्यवहार हो तो कोई झगड़ा ही न रहे लेकिन होता कुछ और ही है। जब दूसरे को ठगना होता है तो सत्यमय व्यवहार नही किया जाता । वहा कहना और करना अलग-अलग हो जाता है । साप के दो जिह्वाएं होती