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५० - सम्यक्त्वपराक्रम (२)
हो, वह पाप तुम्हारे भीतर तो नही है ? उदाहरणार्थ- हराम - खोरी करना खराब काम है । अतएव एक आदमी दूसरे को हरामखोर कहकर धिक्कारता है । मगर उस धिक्कार देने वाले को देखना चाहिए कि मुझमे भी तो यही बुराई नही है ? अगर खुद में यह बुराई है तो अपनी बुराई की ओर से आख फेर कर दूसरे की ही बुराई क्यो देखी जाये ? कदाचित् दूसरे की निन्दा करके तुम अपनी मित्रमण्डली मे भले आदमी कहला लोगे, परन्तु ज्ञानीजन तो वास्तविक वात के सिवाय और कोई बात अच्छी नही समझते । अतएव उनके सामने परनिन्दा करके तुम भले नही कहला सकते ।
कवि अन्त में यही कहता है कि जो व्यक्ति स्वय बुरा होते हुए भी दूसरों की निन्दा करके अपने आपको भला सिद्ध करने की चेष्टा करता है, उसे धिक्कार देने के सिवाय और क्या कहा जाये ? जो अपने को ज्ञानी कहलाकर भी विपयो की आशा रखता है, वह अज्ञानियों से भी अधिक खराव है ।
ऊपर कही हुई बातें भलीभांति समझ लेने से आत्मनिन्दा की भावना जागृत होगी और जब आत्मनिन्दा की, भावना जागृत होगी तो पापो के लिए पश्चात्ताप भी होगा । भक्तजन आत्मनिन्दा करने में किसी प्रकार का सकोच नही करते । वे स्पष्ट शब्दो मे घोषणा कर देते हैं
हे प्रभु । हे प्रभु | शू कहूं, दीनानाथ दयाल । तो दोप अनन्तनु, भाजन छु करुणाल || अर्थात् - हे भगवान् ! में अपने दोपो का कहा तक