________________
छठा बोल-४६,
है, उसे भी धिक्कार ही दिया जा सकता है । जो पुरुष अमृत के समान भोजन का त्याग करके गधे की लीद खाने, दौडता है, उसे भी धिक्कार ही दिया जा सकता है । मतलव यह है कि आत्मनिन्दा अमृतमय भोजन के समान है और पराई निन्दा करना गधे की लीद के समान है। तुम्हारे पास आत्मनिन्दारूपी अमृतमय भोजन है तो फिर परनिन्दा-, रूपी गधे की लीद खाने के लिए क्यो दौडते हो ? अपनी, आत्मा को न देखना और दूसरों की निन्दा करना एक भयानक भूल है।
कवि कहता है-किसी पुरुष को चक्रवर्ती की, कृपा से राज्य मिल गया हो, फिर भी वह अगर चक्की चाटने की इच्छा करता है तो उसे धिक्कार देने के सिवाय और क्या कहा जाये ? क्योकि चक्की चाटने का स्वभाव तो कुत्तो का है । कवि के इस कथन को लक्ष्य मे रखकर आप अपने विषय मे विचार करे कि आपकी आत्मा तो ऐसी भूल नही कर रही है ? न जाने किस प्रवल पुण्य के उदय से आपको चिन्तामणि, कामधेनु या कल्पवृक्ष से भी अधिक मूल्यवान् मानव-शरीर मिला है। चिन्तामणि, कामधेमु या कल्पवृक्ष तो मिल जाये मगर मनुष्य-शरीर न मिले तो यह सब चीजें किस काम की? ऐसा उत्तम मानव जन्म पा करके भी जो आत्मनिन्दा करने के बदले परनिन्दा मे प्रवृत्त होते है, उनका कार्य राज्य मिलने पर भी चक्की चाटने के समान है।
आत्मनिन्दा द्वारा सब तरह का सुधार हो सकता है। पाप खराब है, इसलिए पाप की निन्दा की जाती है, मगर जिस पाप को तुम खराव मानते हो और जो वास्तव मे ही खराब है अथवा जिस पाप के कारण तुम पराई निदा करते