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छठा बोल-४५ है । उसे 'द्विजिह्व' कहते है । इसी आधार पर दो जीभ वाले साप कहलाते हैं और साप विषैला समझा जाता है । किन्तु मनुष्य के एक हो जीभ होती है । अतएव मनुष्य में दोहरी प्रवृत्ति होना उचित नही है । वाणी तथा कार्य की एकता हो मनुष्यता का प्रमाण है । जो व्यक्ति वाणी और कार्य के बीच का अन्तर समझेगा वह आत्मसुधार की दृष्टि से आत्मनिन्दा हो करेगा । वह परनिन्दा करने की खटपट मे नही पडेगा ।
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वाणी और कार्य की तुलना करने के साथ मन और कार्य की भी तुलना करो और साथ ही साथ मन तथा वचन की भी तुलना करो । मन का भाव जुदा रखना और कार्य जुदा करना स्थानागसूत्र के कथनानुसार विष के घड़े को अमृत के ढक्कन से ढँकने के समान है । ऐसा करना ससार को धोखा देना है । मन एव वचन में कुछ और होना और कार्य कुछ और करना आत्मा की बडो दुर्बलता है | आत्मा के कल्याण के लिए यह दुर्बलता दूर करनी ही जाहिए ।
वास्तव मे होना यह चाहिए कि मन, वचन और कार्य की प्रवृत्ति मे किसी प्रकार का अन्तर न रहे । मगर आज तो उलटी ही सीख दी जाती है कि काय से चाहे जो पाप, करो पर वचन मे सफाई रखो और यदि दूसरो को धोखा देने की यह कला तुमने सीख लो तो बस मौज करोगे । किन्तु वास्तविक दृष्टि से देखा जाये तो ऐसा करने में मौज नही है - आत्मा का पतन है । ज्ञानीजनो का कथन है कि बोलना कुछ करना कुछ और सोचना कुछ यह सब प्रवृत्तियां आत्मा को पतित करने वाली है । अगर आत्मा उत्थान की इच्छा है तो इन प्रवृत्तियो से दूर ही रहो
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