________________
४०-सम्यक्त्वपराक्रम (२) का पश्चात्ताप न मेरे । हां, मेरे कारण आपको जो कष्ट हुआ है, उसके लिए मुझे क्षमा कीजिए।'
चन्दनवाला विचारने लगी- इस तरह का उपालम्भ । मैंने न जाने किसे-किसे दिया होगा | अज्ञान के कारण ऐसे अनेक अपराध मुझसे हुए होगे | मेने अपना अपराध तो देखा नही और दूसरों को ही उपालम्भ देने के लिए तैयार
हो गई । चन्दनबाला इस प्रकार आत्मनिन्दा करने लगी । - आत्मनिन्दा करते-करते उन्हे भी केवलज्ञान प्रकट हो गया । " कहने का आशय यह है कि सरलता धारण करने से
और अपने पापो का गम्भीर विचार करने से आत्मा नवीन ' कर्मों का बन्ध नहीं करता, वरन् पूर्ववद्ध कर्मों को नष्ट कर 'डालता है। भगवान ने कहा है -आलोचना करने से स्त्रीवेद और नपु सकवेद का बन्ध नही होता । अगर इन वेदो का पहले बन्ध हो गया हो तो उन कर्मो की निर्जरा हो जाती है । ऐसा होने पर भी हमे आलोचना के द्वारा पुरुषवेद के बन्ध की कामना नहीं करना चाहिये । हमारा एकमात्र उद्देश्य समस्त कर्मो का क्षय करना ही होना चाहिए।