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पांचवां बोल- ३५
अर्थात् साधुओं के लिए यही उचित है कि उनकी आत्मा मे यदि पापरूपी शल्य हो तो उसे बाहर निकाल दे, फिर चाहे वह मिथ्यात्वशल्य हो, निदानशल्य हो अथवा कषायगल्य हो । इस त्रिविध शल्य मे से कोई भी शल्य घुस गया हो तो उसे बाहर करके नि शल्य हो जाना चाहिये । इस प्रकार निःशल्य हो जाने से थोड़े ही समय मे शाश्वत स्थान अर्थात् मोक्ष प्राप्त हो जाता है । इसके विरुद्ध जो साधु निःशल्य नही होता, अपनी ग्रात्मा में पाप रहने देता है और अपने में से दड को बाहर नही कर देता, वह अनन्त ससार की वृद्धि करता है । अतएव जिन्हे ससार से बाहर निकलने की अभिलाषा है, उन्हे अपने पाप प्रकाशित करके, निष्कपटभाव से आलोचना करनी ही चाहिए ।
पाँचवे बोल का वर्णन यहा समाप्त हो रहा है । इस बोल का वर्णन सुनकर हमें क्या करना चाहिए ? इस प्रश्न पर विचार करने की आवश्यकता है । भगवान् कहते है - 'मैं तो सभी जीवो का कल्याण चाहता हू किन्तु अपना कल्याण अपने ही हाथ मे है । '
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सूर्य प्रकाश देता है और स्पष्ट कर देता है कि यह साप है और यह फूलो की माला है । सूर्य के द्वारा इतना स्पष्टीकरण कर देने पर भी अगर कोई पुरुष साप को ही माला समझकर पकडता है तो इसमे सूर्य का क्या दोष है? इसी प्रकार शास्त्र स्पष्ट बतलाता है कि पापो को आत्मा से अलग कर दो । पापो को बाहर निकालने के लिए यह अपूर्व अवसर हाथ आया है । इस समय भी पापो का परित्याग न किया तो फिर कब करोगे ? शास्त्र के इस स्पष्ट कथन के होते हुये भी अगर कोई अपने पाप नही त्यागता