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पांचवां बोल-३
मिलता है । अर्थात् एक मास का दण्ड अपराध का होता है और एक मास का कपट करने का । यह विधान करके शास्त्रकारो ने माया-कपट को महान् अपराध गिना है और इसीलिए भगान् ने कहा है कि सरलतापूर्वक आलोचना करने वाले मे माया-कपट नही रहेगा।
संसार मे भ्रमण कराने वाली माया, कपट या अविद्या ही है । कपट ही ससार का बीज है। भगवान् कहते है कि कपट अर्थात् माया के हो प्रताप से जीवो को स्त्रीवेद और नपु सकवेद का बध होता है। जो निष्कपट भाव से आलोचना करेगा और सरलता धारण करेगा उसे इन दोनो वेदो का बध नही होगा। इतना ही नही, कदाचित् स्त्रीवेद या नपुसकवेद का वध पहले हो चुका होगा तो उसकी भी निजरा हो जायेगी।
कुछ लोग समझते है कि किये हुए कर्म भोगने ही पडते है । यह बात सत्य है, मगर साथ ही शास्त्र यह भी बतलाता है कि सरलता धारण करने से कृत कर्मों की निर्जरा भी हो जाती है । कर्मों की निर्जरा न हा सकती होती तो मोक्ष का उपदेश वृथा हो जाता।
कपटहीन होकर अपने पापो की आलोचना करने से क्या लाभ होता है ? इसके लिए टीकाकार ने सग्रह रूप में जो कथन किया है, उसका आशय यह है कि अालोचना करने से स्त्रीवेद या नपु सकवेद का बध नही होता । यही नही बल्कि पहले के वधे हु एस्त्रीवेद या नपु सकवेद रूप कर्म की निर्जरा भी हो जाती है और साथ ही साथ मोक्ष के विधातक अन्य कर्मों का भी नाश होता है । इस तरह सरलतापूर्वक आलोचना करने का फल महान् है, अतएव सरलता