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पांचवां बोल-२७
समक्ष प्रकट कर देना चाहिए शास्त्र धन्य है जिसने साधुसाध्वियो का आलोचना करके जीवन शुद्ध करने का चरित प्रकट करके हमें सावधान कर दिया है । इस चरित से हमें यह शिक्षा लेनी चाहिए कि कदाचित् अपने से ऐसा कोई कार्य हो जाये तो गुरु के समक्ष आलोचना करके इस प्रकार निवेदन करना चाहिए - 'गुरुदेव मुझ से अमु प्रकार का अपराध हो गया है। आप भगवान की वाणी के अनुसार मुझे शुद्ध और पवित्र कीजिए ।' गुरु से इस प्रकार प्रार्थना करके उनके द्वारा दिये हुए दण्ड को स्वीकार करना चाहिए।' - शास्त्र मे आलोचना के अनेक भेद किये गये है । मूल गुणो की भी आलोचना होती है और उत्तर गुणो की भी आलोचना होती है । साधुओ के मूल गुण पाच महाव्रत है और श्रावक के मूलगुण पाच अणुव्रत है। इनमें दोष लगना मूलगुणो मे दोष लगना कहलाता है और उनकी आलोचना करना मूलगुण की आलोचना है । मूलवत मे दोष लगने पर भी घवराने की आवश्यकना नही है कि हाय ! मेरे. मूलव्रत मे दोष लग गया । दोष लगता है इसी कारण तो आलोचना की जाती है जो वस्त्र मल न हो गया हो उसी को धोने की आवश्यकता होती है । साफ-सुथरे वस्त्र को धोने की क्या आवश्यकता है ? इसी प्रकार दोष लगता है तभी आलोचना का विधान किया गया है । . बचपन मे, जब मैं दीक्षा का उम्मीदवार था, प्राय यह पद गाया करता था
बाहर भीतर समता राखो, जैन में फैन न खटसी रे, कायर तो कादा मे खंचिया, शूरा पार उतरसी रे ।।