________________
२४-सम्यक्त्वपराक्रम (२) किसी भी प्रकार का दुःख नही रह सकता ।
माया, धर्मक्रिया का भी निदान करा देती है । इस लोक या परलोक के लिए अपनी धर्मक्रिया बेच देना निदान कहलाता है। माया ऐहलौकिक और पारलौकिक सुख के लिए निदान कराती है । किसी भी देखी-अनदेखी वस्तु के लिए अपनी वर्मक्रिया बेच देना निदान है और निदान आत्मा के लिए शल्य के समान है ।
कुछ लोग ऐसी पाशका करते है कि भारतवर्ष धार्मिकक्षेत्र होते हुये भी दुखी क्यो है ? ऐसा कहने वालो को यही उत्तर दिया जा सकता है, कि दूसरो के साथ सम्बन्ध जोडने से ही भारतवासी दुखी हो रहे है । धर्मक्रिया करने के साथ ही साथ लोग मायाजाल रचते है, यही उनके दुख का कारण है । प्राचीनकाल के पुरुष इन्द्रपदवी के लिए भी धर्मक्रिया का विक्रय नही करते थे और न अपने धर्म का परित्याग ही करते थे। मगर आज क्या स्थिति है ? आज दो-चार पैसो के लिए भी धर्म को तिलाजलि दे दी जाती है। ऐसी दशा मे भारत दुखी न हो तो क्या हो? सुख की अभिलापा है तो माया निदान का त्याग करो। जव तक मायानिदान का अन्त नहीं होता तब तक समस्त धर्मक्रिया भी व्यथ जाती है। सारांश यह है कि माया का त्याग किये विना धर्म क्रिया भी मोक्षसाधक नही हो सकती।
श्रीदशाश्रुतस्कन्ध में कहा-एक वार राजा श्रेणिक और उनकी रानी चेलना उत्तम पोशाक पहनकर भगवान् के समवसरण मे आये । उस समय वे बहुत ही सुन्दर दिखाई देते थे। यहा तक कि राजा श्रेणिक को देखकर कुछ साध्वियाँ भी मन ही मन कहने लगी-'राजा कितना सुन्दर दिखाई