Book Title: Samkit Pravesh - Jain Siddhanto ki Sugam Vivechana
Author(s): Mangalvardhini Punit Jain
Publisher: Mangalvardhini Foundation
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________________ समकित-प्रवेश, भाग-2 आत्मा में मोह, राग-द्वेष की उत्पत्ति ही हिंसा है। मोह यानि कि मिथ्यात्व और राग-द्वेष यानि कि कषाय। प्रवेश : भाईश्री ! हमने तो सुना था कि किसी जीव को मारना, सताना, दुःख पहुँचाना हिंसा है ? समकित : हाँ, तो किसी को मारने, सताने, दुःख पहुँचाने के भावों का मूल कारण मोह, राग-द्वेष ही तो हैं। यदि हम मोह, राग-द्वेष यानि कि मिथ्यात्व और कषाय को खत्म कर दें, यानि कि स्वयं को जानकर, स्वयं में अपनापन कर, स्वयं में ही लीन हो जायें, तो किसी को मारने का क्या, बचाने का भाव' भी नहीं आयेगा। प्रवेश : अरे वाह ! और असत्य ? समकित : सत्य को न समझना की असत्य है। क्योंकि जब तक सत्य को समझेंगे ही नहीं, तब तक सत्य बोलेंगे भी कैसे? प्रवेश : मैं तो समझता था कि सिर्फ सत्य नहीं बोलना ही असत्य है। चोरी तो किसी दूसरे की चीज को उससे बिना पूछे उठा लेना ही है न ? समकित : यह तो है ही, लेकिन इससे भी बढ़कर जो चीज हमारी नहीं है, उसकी __ इच्छा रखने का भाव भी चोरी ही है। प्रवेश : और कुशील ? समकित : दूसरे की माँ, बहिन, बेटी को गलत नजर से देखना, उनके प्रति गंदा भाव रखना कुशील है। प्रवेश : और रुपया-पैसा, सोना-चाँदी वगैरह परिग्रह है ? समकित : असल में तो रुपया-पैसा, सोना-चांदी परिग्रह नहीं। बल्कि उनको जोड़ने का भाव, उनमें लीनता-तल्लीनता ही परिग्रह है। जब उनको जोड़ने का भाव यानि कि उनमें लीनता-तल्लीनता खत्म हो जाती है, तब वह सब भी छूटे बिना नहीं रहते। वही सच्चा परिग्रह त्याग है। 1. feeling 2.truth 3.lie 4.desire 5. evil eye 6. evil 7. real