Book Title: Samkit Pravesh - Jain Siddhanto ki Sugam Vivechana
Author(s): Mangalvardhini Punit Jain
Publisher: Mangalvardhini Foundation
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________________ 224 समकित-प्रवेश, भाग-7 समकित : एकांत स्थान में पूर्व या उत्तर दिशा की तरफ या जिन-प्रतिमा अथवा जिन-मंदिर की तरफ मुँह करके खड़े होकर, दोनों हाथ लंबे छोड़कर, दोनों पैरों के बीच चार-अंगुल का अंतर रखकर, शरीर की क्रियाओं (हलन-चलन आदि) को बंद कर व उपसर्ग-परिषह को जीतकर कायोत्सर्ग किया जाता है। प्रवेश : यह कब किया जाता है ? समकित : प्रतिक्रमण आदि आवश्यकों के समय एवं आहार, विहार, निहार व स्वाध्याय आदि क्रियाओं के बाद नियमपूर्वक कायोत्सर्ग किया जाता है। बाकी कल..! शुद्ध-उपयोग व अशुद्ध-उपयोग के काल में जीव के ज्ञान, श्रद्धा व चारित्र गुण का परिणमनः जीव शुद्ध-उपयोग के काल में - अशुद्ध-उपयोग के काल में / गुण | पर्याय - स्व में | पर में स्व में पर में | उपयोग | V ज्ञान लब्ध श्रद्धा अपनापन | / / / चारित / उपयोग | | परिणति आंशिक/ आंशिक पहले ध्यान सच्चा नहीं होता। पहले ज्ञान सच्चा होता है कि मैं इन शरीर, वर्ण, गंध, रस, स्पार्शादि सबसे पृथक् हूँ, अंतरमें जो विभाव होता है वह मैं नहीं हूँ, ऊँचे से ऊँचे जो शुभभाव वह मैं नहीं हूँ, मैं तो सबसे भिन्न ज्ञायक हूँ। गृहस्थाश्रम में वैराग्य होता है परन्तु मुनिराज का वैराग्य कोई और ही होता है। मुनिराज तो वैराग्य-महल के शिखर के शिखामणि हैं। -बहिनश्री के वचनामृत | 1.direction 2.four-fingers 3.gap 4.calamities-distractions