Book Title: Samkit Pravesh - Jain Siddhanto ki Sugam Vivechana
Author(s): Mangalvardhini Punit Jain
Publisher: Mangalvardhini Foundation

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Page 297
________________ 290 आदि सम्यकत्व से भ्रष्ट और तीव्र कषाय हो जाने के कारण नरक चले गये। प्रवेश : हमने तो सुना था जो एक-बार सम्यकदर्शन प्राप्त कर लेता है वह कभी न कभी मोक्ष जरूर जाता है। अनंत काल तक संसार में नहीं रहता। समकित : हाँ, सही सुना है। लक्ष्मण और रावण भी भविष्य में तीर्थंकर होकर मोक्ष जायेंगे और आर्यिका सीता का जीव रावण के जीव का गणधर होकर मोक्ष जायेगा। प्रवेश : अरे वाह ! हम तो कुछ और ही सोचते थे। समकित : इसीलिये तो कहा है-स्वाध्याय परमं तपः यानि स्वाध्याय सबसे बड़ा तप है। स्वाध्याय से सत्य-असत्य का निर्णय होता है। भ्रांतियाँ (गतलफहमी) दूर होती हैं। भरत चक्रवर्ती, रामचन्द्रजी, पांडव आदि धर्मात्मा संसार में थे, परन्तु उन्हें निराले निज आत्मतत्व का भान था। दूसरे को सुखी-दुःखी करना, मारना-जिलाना वह आत्मा के हाथ में नहीं है ऐसा वे बराबर समझते हैं तथापि अस्थिरता है इसलिये युद्ध के प्रसंग में जुड़ जाने आदि के पापभाव तथा दूसरों को सुखी करने, जिलाने एवं भक्ति आदि के पुण्यभाव | पुरुषार्थ की निर्बलता से होते हैं। स्वरूप में लीनता का पुरुषार्थ करके, अवशिष्ट राग को -गुरुदेवश्री के वचनामृत चैतन्य की भावना कभी निष्फल नहीं जाती, सफल ही होती है। भले ही थोड़ा समय लगे, किन्तु भावना सफल होती ही है। चाहे जैसे संयोग में आत्मा अपनी शान्ति प्रगट कर सकता है।

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