Book Title: Samkit Pravesh - Jain Siddhanto ki Sugam Vivechana
Author(s): Mangalvardhini Punit Jain
Publisher: Mangalvardhini Foundation
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________________ 292 समकित-प्रवेश, भाग-8 प्रवेश : कृपया बारह-भावनाओं को समझाईये न ? समकित : ठीक है, एक पुराने कविराज की बारह-भावनाएँ हम देखते हैं: अनित्य द्रव्य रूप करि सर्व थिर, परजय थिर है कौन / द्रव्य दृष्टि आपा लखो, परजय नय करि गौन / / अशरण शुद्धातम अरु पंच गुरु, जग में सरनौ दोय / मौह उदय जिय के वृथा, आन कल्पना होय / / संसार पर द्रव्यन तैं प्रीति जो, है संसार अबोध / ताको फल गति चार में, भ्रमण कह्यो श्रुत शोध / / एकत्व परमारथ तैं आतमा, एक रूप ही जोय / कर्म निमित विकलप घने, तिन नासे शिव होय / / अन्यत्व अपने अपने सत्वकूँ, सर्व वस्तु विलसाय / ऐसे चितवै जीव तब, परतें ममत न थाय / / अशुचि निर्मल अपनी आतमा, देह अपावन गेह / जानि भव्य निज भाव को, यासों तजो सनेह / / आतम केवल ज्ञानमय, निश्चयदष्टि निहार / सब विभाव परिणाममय, आस्रवभाव विडार / / आम्रव संवर निज स्वरूप में लीनता, निश्चय संवर जानि / समिति गुप्ति संजम धरम, करें पाप की हानि / / वैराग्य उत्पत्ति काल में बारह भावनाओं का चिंतवन करनेवाले ज्ञानी आत्मा इसप्रकार विचार करते हैं: अनित्य : द्रव्य-दृष्टि' से देखा जाय तो सर्व जगत् स्थिर है, पर पर्याय-दृष्टि से कुछ भी स्थिर नहीं है, अतः पर्यायार्थिक नय को गौण करके द्रव्यदृष्टि से एक नित्य आत्मा की अनुभूति ही करने योग्य कार्य है। अशरण : इस विश्व में दो ही शरण हैं। निश्चय-से तो निज शुद्धात्मा ही शरण 1. static-perception 2.stable 3.dynamic-perception 4.experience 5.actually