Book Title: Samkit Pravesh - Jain Siddhanto ki Sugam Vivechana
Author(s): Mangalvardhini Punit Jain
Publisher: Mangalvardhini Foundation
View full book text
________________ देव-स्तुति सकल ज्ञेय ज्ञायक तदपि, निजानंद रसलीन / सो जिनेंद्र जयवंत नित, अरि-रज-रहस विहीन।। 1 / / जय वीतराग विज्ञानपूर। जय मोहतिमिर को हरेन सूर।। जय ज्ञान अनंतानंत धार / दृग-सुख-वीरजमंडित अपार।।2।। सारांश- जिनेन्द्र देव की स्तुति करते हुए पण्डित दौलतरामजी कहते हैं कि- हे जनेन्द्र देव ! आप समस्त ज्ञेयों (लोकालोक) का ज्ञान होने पर भी अपनी आत्मा के आनन्द में लीन रहते हो। चार घतिया कर्म हैं निमित्त जिनके ऐसे मोह, राग-द्वेष व अज्ञान आदि विकारों से रहित हो। प्रभो ! आपकी जय हो / / 1 / / आप मोह, राग-द्वेषरूप अंधकार' का नाश करनेवाले वीतरागी सूर्य हो। अनन्त ज्ञान के धारण करने वाले हो, अतः पूर्णज्ञानी (सर्वज्ञ) हो तथा अनंत दर्शन, अनंत सुख और अनंत वीर्य से भी सुशोभित हो। हे प्रभो ! आपकी जय हो / / 2 / / जय परमशांत मुद्रा समेत। भविजन को निज अनुभूति हेत / / भवि भागन वचजोगे वशाय / तुम धुनि है सुनि विभ्रम नशाय / / 3 / / तुम गुण चिंतत निज-पर विवेक / Iगटै विघटै आपद अनेक / / तुम जगभूषण दूषणवियक्त। सब महिमायुक्त विकल्पमुक्त / / 4 / / अविरुद्ध, शुद्ध, चेतन-स्वरूप। परमात्म परम् पावन अनूप / / 1.darkness 2.infinite 3. adorned