Book Title: Samkit Pravesh - Jain Siddhanto ki Sugam Vivechana
Author(s): Mangalvardhini Punit Jain
Publisher: Mangalvardhini Foundation

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Page 235
________________ 228 समकित-प्रवेश, भाग-7 समकित : इससे अच्छी भावना और क्या हो सकती है। लेकिन सम्यकचारित्र (छठवाँ-सातवाँ गुणस्थान) प्रगट' करने के लिये सम्यकदर्शन (चौथा गुणस्थान) प्रगट करना अत्यंत आवश्यक है। और सम्यकदर्शन के लिये आत्मानुभूति। आत्मानुभूति के लिये स्व-पर भेद विज्ञान व भेदविज्ञान के लिये तत्व-निर्णय और सच्चे वीतरागी देव-शास्त्र-गुरु का निर्णय करना अत्यंत आवश्यक है एवं यह सब चारों अनुयोगों के क्रमिक व व्यवस्थित स्वाध्याय के बिना नामुमकिन है। इसीलिये पूरी निष्ठा के साथ चारों अनुयोगों के एक-एक शब्द की सही अपेक्षा समझकर, योग्य-शिक्षक के मार्गदर्शन में स्वाध्याय करना अत्यंत आवश्यक है। प्रवेश : अनात्मज्ञानी मिथ्यादृष्टि का पहला गुणस्थान, आत्मज्ञानी अविरत सम्यकदृष्टि का चौथा गुणस्थान, आत्मज्ञानी व्रती-श्रावक का पाँचवा गुणस्थान, आत्मज्ञानी मुनिराज का छठवें से बारहवाँ गुणस्थान, अरिहंत भगवान का तेरहवा-चौदहवाँ गुणस्थान होता है व सिद्ध भगवान गुणस्थानातीत होते हैं। यह बात तो आप पहले ही बता चुके हैं लेकिन कृपया विस्तार से गुणस्थानों का स्वरूप बताईये। समकित : हमारा अगला विषय यही है। जो केवलज्ञान प्राप्त कराये ऐसा अन्तिम पराकाष्ठा का ध्यान वह उत्तम प्रतिक्रमण है। इन महा मुनिराजने ऐसा प्रतिक्रमण किया कि दोष पुनः कभी उत्पत्र ही नहीं हुए; ठेठ श्रेणी लगा दी कि जिसके परिणाम से वीतरागता होकर केवलज्ञान का सारा समुद्र उछल पड़ा ! अन्तर्मुखता तो अनेक बार हुई थी, परन्तु यह अन्तर्मुखता तो अन्तिमसे अन्तिम कोटिकी! आत्माके साथ पर्याय ऐसी जुड़ गई की उपयोग अंदर गया सो गया, फिर कभी बाहर आया ही नहीं / चैतन्यपदार्थ को जैसा ज्ञानमें जाना था, वैसा ही उसको पर्यायमें प्रसिद्ध कर लिया। -बहिनश्री के वचनामृत 1.achieve 2.extremely 3.self-experience 4.essential 5.sequential 6.systematic 7.dedication 8.intention 9.capable-teacher 10.guidance

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