Book Title: Samkit Pravesh - Jain Siddhanto ki Sugam Vivechana
Author(s): Mangalvardhini Punit Jain
Publisher: Mangalvardhini Foundation
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________________ 264 समकित-प्रवेश, भाग-8 प्रवेश : यह धर्म तो आपस में विरोधी ही हैं, फिर विरोधी न कहकर विरोधी से लगने वाले क्यों कहा? समकित : क्योंकि जीव के शाश्वत' ध्रुव-स्वभाव की अपेक्षा से वस्तु नित्य धर्म वाली है और क्षणिक पर्याय-स्वभाव की अपेक्षा से अनित्य धर्म वाली नित्य का अर्थ होता है स्थाई और अनित्य का अर्थ है अस्थाई। प्रवेश : तो? समकित : तो यह कि शाश्वत ध्रुव-स्वभाव की अपेक्षा से ही जीव नित्य और उसी अपेक्षा से अनित्य होता तो जीव के यह दोनों धर्म (नित्यअनित्य) विरोधी' कहलाते। लेकिन जीव नित्य अलग अपेक्षा से है और अनित्य अलग अपेक्षा से। प्रवेश : जैसे? समकित : जैसे राजा श्रेणिक, पहले नरक का नारकी व भविष्य के पहले तीर्थंकर यह एक ही जीव की तीन पर्याय हैं। राजा श्रेणिक की पर्याय नष्ट होकर नारकी की पर्याय हुई और नारकी की पर्याय नष्ट होकर तीर्थंकर की पर्याय प्रगट' होगी। लेकिन तीनों पर्यायों में जीव तो वही का वही रहा। या जैसे बचपन, जवानी व बुढ़ापा एक ही व्यक्ति की तीन पर्यायें हैं। बचपन की पर्याय नष्ट होकर जवानी की पर्याय प्रगट होती है और जवानी की पर्याय नष्ट होकर बुढ़ापे की पर्याय प्रगट होती है। लेकिन तीनों पर्यायों में व्यक्ति तो वही का वही रहा। अतः जीव ध्रुव स्वभाव की अपेक्षा नित्य है व पर्याय स्वभाव की अपेक्षा अनित्य है। प्रवेश : तो वस्तु में यह गुण-धर्मों की अनेकता ही वस्तु का अनेकांत है ? 1.eternal 2.perception 3.stable 4.momentary 5.unstable 6.perception 7.opposite 8. future 9.states 10.destroy 11.occur 12.individual 13.states 14.eternal 15.momentray 16.diversity