Book Title: Samkit Pravesh - Jain Siddhanto ki Sugam Vivechana
Author(s): Mangalvardhini Punit Jain
Publisher: Mangalvardhini Foundation

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Page 289
________________ 282 समकित-प्रवेश, भाग-8 प्रवेश : कथन करने की जरूरत ही क्या है ? समकित : समझने-समझाने के लिये। हमने देखा था ना कि अज्ञानी को समझाने के लिये अज्ञानी की भाषा यानि कि व्यवहार नय का सहारा लिया जाता है। कहा भी है-अनार्य' को अनार्य की भाषा में समझाया जाता है लेकिन ब्राह्मण को अनार्य बन जाना ठीक नहीं है। प्रवेश : मतलब? समकित : जैसे कोई विदेशी व्यक्ति, किसी साधु-महात्मा के पास आया। साधु महात्मा ने उसे आशीर्वाद दिया-धर्मलाभ ! लेकिन विदेशी की भाषा इंग्लिश होने के कारण उसको कुछ भी समझ में नहीं आता और साधु-महात्मा की बात उस तक पहुँचती ही नहीं। लेकिन यदि साधु-महात्मा उस विदेशी की भाषा में यानि कि इंग्लिश में उसे आशीर्वाद दे तो वह विदेशी व्यक्ति उस आशीर्वाद को समझ जाता है यानि कि साधु-महात्मा की बात उस तक पहुँच जाती है। प्रवेश : यानि कि किसी भी वस्तु के सत्य (निश्चय) स्वरूप को समझने समझाने के लिये व्यवहार नय उपयोगी है लेकिन आश्रय करने के लिये, उसको पकड़ के बैठने के लिये नहीं ? समकित : बिल्कुल ! ठीक उसी प्रकार जैसे प्लेन को उड़ने के लिये रन-वे पर दौडना जरूरी तो है, लेकिन रन-वे पर ही दौड़ते रहने के लिये नहीं। यदि वह रन-वे पर न दौड़े तो भी नहीं उड़ सकेगा और रन-वे पर ही दौड़ता रहे, उसे छोड़े नहीं, तो भी नहीं उड़ सकेगा। लेकिन आज समस्या यह है कि कुछ लोग रन-वे पर दौड़ना ही नहीं चाहते, तो कुछ लोग रन-वे को छोड़ना नहीं चाहते यानि कि उस पर ही दौड़ते रहना चाहते हैं। 1.foreigner 2.blessing 3.foreigner 4.running

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