Book Title: Samkit Pravesh - Jain Siddhanto ki Sugam Vivechana
Author(s): Mangalvardhini Punit Jain
Publisher: Mangalvardhini Foundation
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________________ 274 समकित-प्रवेश, भाग-8 इसलिये दूसरों की, कर्मों की और यहाँ तक कि अपनी पर्यायों की तरफ भी देखना छोड़ो क्योंकि पर्याय तो एक समय की (क्षणिक') है, परिणमनशील है, निश्चित है। लेकिन तुम्हारा मूल स्वभाव तो त्रिकाली' ध्रुव (शाश्वत) है, अपरिणामी है, निष्क्रिय है, अकर्ता है व शुद्ध (निर्दोष) है। प्रवेश : इससे क्या होगा? समकित : बस अपने को ऐसा जानना ही सम्यकज्ञान है, ऐसा मानना ही सम्यकदर्शन है और ऐसा ही जानते-मानते रहना ही ध्यान यानि कि सम्यकचारित्र है। और इन तीनों की एकता यानि कि रत्न-त्रय' ही मोक्ष यानि कि सच्चे सुख की प्राप्ति का मार्ग है और सच्चा सुख पाना ही तो हम सबका एक मात्र उद्देश्य है। जीवन आत्मामय ही कर लेना चाहिये। भले ही उपयोग सूक्ष्म होकर कार्य नहीं कर सकता हो परन्तु प्रतीति में ऐसा ही होता है कि यह कार्य करने से ही लाभ है, मुझे यही करना है, वह वर्तमान पात्र है। जो प्रथम उपयोग को पलटना चाहता है परन्तु अंतरंग रुचि को नहीं पलटता, उसे मार्ग का ख्याल नहीं है। प्रथम रुचि को पलटे तो उपयोग सहज ही पलट जायगा। मार्ग की यथार्थ विधिका यह क्रम है। सहज दशा को विकल्प कर के नहीं बनाये रखना पड़ता। यदि विकल्प करके बनाये रखना पड़े तो वह सहज दशा ही नहीं है। तथा प्रगट हुई दशा को बनाये रखने का कोई अलग पुरुषार्थ नहीं करना पड़ता, क्योंकि बढ़ने का पुरुषार्थ करता है जिससे वह दशा तो सहज ही बनी रहती है। -बहिनश्री के वचनामृत 1.momentary 2. transforming 3.certain 4.eternal 5.non-transforming 6.unity 7. three-jewels 8.salvation 9.aim