Book Title: Samkit Pravesh - Jain Siddhanto ki Sugam Vivechana
Author(s): Mangalvardhini Punit Jain
Publisher: Mangalvardhini Foundation
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________________ समकित-प्रवेश, भाग-8 241 तीसरे ही जात्यांतर (जुदा) स्वाद वाला होता है। लेकिन एक बात तो पक्की है कि वह सम्यक्त्व से तो छूट ही गया है। प्रवेश : इस तीसरे गुणस्थान में जीव कितने समय तक रहता है ? समकित : अंतर्मुहूर्त तक। प्रवेश : उसके बाद? समकित : यदि इस अंतर्मुहूर्त के भीतर वह दोबारा शुद्धात्मा की प्रतीति' में स्थिर हो जाये तो वापिस चौथे अविरत् सम्यकदर्शन गुणस्थान में पहुँच जाता है और यदि वह ऐसा न कर सके तो पहले मिथ्यात्व गुणस्थान में आ जाता है। प्रवेश : अच्छा ! अब समझ में आया कि इसीलिये चौथे गुणस्थान तक का कथन श्रद्धा गुण की अपेक्षा से होता है क्योंकि यहाँ मिथ्याश्रद्धा और सम्यकश्रद्धा की मुख्यता से ही बात है। समकित : हाँ बिलकुल। अब पाँचवे गुणस्थान से चारित्र गुण की मुख्यता से बात होगी। सुनो! 5. देशविरत् (देशसंयत) गुणस्थानः चौथे गुणस्थान में अविरत् सम्यकदृष्टि को मिथ्यात्व और अनंतातबंधी कषाय का अनुदय है। यानि कि उसने आत्मा को जानकर (अनुभव कर), उसमें अपनापन किया है और उसमें पहले स्तर की लीनता की है। जब वह अपनी इस अल्प आत्म-लीनता को बढ़ाकर दूसरे स्तर की कर लेते हैं तो उनको पाँचवा देशविरत् गुणस्थान प्रगट होता है चौथे गणस्थान में जब यह जीव आत्मलीनता को पहले स्तर से बढ़ाकर दूसरे स्तर की करने का पुरुषार्थ कर रहे होते हैं तब उनको देशव्रत व प्रतिमाओं की प्रतिज्ञा लेने का सहज शुभ राग आता है और वह अपने योग्य प्रतिमा को धारण कर लेते हैं एवं अपनी आत्मा में 1.belief 2.stable 3.narration 4.prominance 5.minor 6.occur 7.effort 8.pledge