Book Title: Samkit Pravesh - Jain Siddhanto ki Sugam Vivechana
Author(s): Mangalvardhini Punit Jain
Publisher: Mangalvardhini Foundation

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Page 257
________________ 250 समकित-प्रवेश, भाग-8 प्रवेश : इन औपशमिक और क्षायिक आदि भावों को विस्तार से समझाईये न? समकित : अभी नहीं। अभी तो योग गण की मख्यता से जिन आखिरी दो गुणस्थानों का कथन होता है ऐसे तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान के बारे में हमको समझना है। 13.सयोग-केवली गुणस्थानः मिथ्यात्व (दर्शन मोहनीय) और कषाय (चारित्र मोहनीय) यानि कि सम्पूर्ण मोहनीय कर्म से रहित पूर्ण वीतरागी बारहवें गुणस्थानवर्ती मुनिराज, बारहवें गुणस्थान के अंतिम समय में अज्ञान (ज्ञानावरण कर्म), अदर्शन (दर्शनावरण कर्म) और असमर्थता (अंतराय कर्म) ऐसे तीनों घातिया कर्मों का नाश कर अनंत सुख, अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन और अनंत वीर्य स्वरूप तेरहवाँ सयोग-केवली गुणस्थान यानि कि अरिहंत दशा प्रगट कर लेते हैं। इस गणस्थान में मोह (मिथ्यात्व और कषाय) का नाश होकर अनंत सुख, अज्ञान का नाश होकर अनंत ज्ञान (केवल ज्ञान), अदर्शन का नाश होकर अनंत दर्शन (केवल दर्शन) और असमर्थता का नाश होकर अनंत सामर्थ्य (अनंत वीर्य) तो प्रगट हो गये हैं, लेकिन योग गुण का अभी भी अशुद्ध परिणमन (पर्याय), यानि कि आत्मा के प्रदेशों में कंपन चल रहा है। आत्मप्रदेश स्थिर नहीं रह पा रहे हैं। यानि कि योग (कंपन) सहित है। साथ ही द्रव्यमन (पुद्गल की रचना), वचन और काय की चेष्टायें स्वयं चल रही हैं। विहार, उपदेश आदि के काम भी भगवान के भावों (इच्छा) के बिना ही स्वयं चल रहे हैं क्योंकि भगवान का भाव-मन (जीव के विकल्प) समाप्त हो चुका है। वे पूर्ण वीतरागी और सर्वज्ञ हो चुके हैं। यानि कि बिना उनकी इच्छा या कोशिश के उनके ज्ञान का विषय तो तीनों लोक और तीनों काल के समस्त द्रव्य-गुण-पर्याय बन रहे हैं, लेकिन मोह, राग-द्वेष का अभाव हो जाने के कारण वह प्रभावित किसी से भी नहीं होते। 14.अयोग-केवली गुणस्थानः इस गुणस्थान में भगवान के आत्मप्रदेशों का कंपन सहज व स्वयं रुक जाता है यानि कि योग गुण का शुद्ध परिणमन (पर्याय) शुरु हो जाता है। साथ ही काय (शरीर) की 1.vibration 2. stable 3.activities 4.automatically 5.effort 6. entire 7.affected 8. vibration

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