Book Title: Samkit Pravesh - Jain Siddhanto ki Sugam Vivechana
Author(s): Mangalvardhini Punit Jain
Publisher: Mangalvardhini Foundation
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________________ 251 समकित-प्रवेश, भाग-8 सक्ष्म चेष्टायें (योग) भी सहज व स्वयं रुक गयी हैं। भगवान के आत्म-प्रदेश और शरीर आदि स्वयं स्थिर हो गये हैं। इस गुणस्थान का समय अ इ उ ऋ ल इन पाँच ह्रस्व स्वरों के उच्चारण के समय के बराबर है। इस गुणस्थान के अंत में भगवान आयु पूर्ण कर शरीर आदि से रहित होकर यानि कि वेदनीय, आयु, नाम व गोत्र ऐसे चार अघाति कर्मों का अभाव कर अव्याबाधत्व, अवगाहनत्व, सूक्षमत्व और अगुरुलघुत्व गुण प्रगट करके गुणस्थानातीत सिद्ध दशा को प्राप्त करते हैं और ऊर्ध्वगमन स्वभाव प्रगट होने से लोक के अग्र (सबसे ऊपरी) भाग में जाकर अंतिम वातवलय (सिद्धालय) में विराजमान हो जाते हैं और वहाँ अनंतकाल तक अनंत अतींद्रिय सुख का वेदन करते रहते हैं। इस प्रकार यह चौदह गुणस्थान हमें बहिरात्मा से परमात्मा बनने का क्रम बतालाते हैं। प्रवेश : परमात्मा तो ठीक, यह बहिरात्मा क्या होता है ? समकित : यह मैं तुम्हें कल समझाऊँगा। मुनि असंगरूपसे आत्माकी साधना करते हैं, स्वरूपगुप्त हो गये हैं। प्रचुर स्वसंवेदन ही मुनिका भावलिंग है। प्रथम भूमिकामें शास्त्रश्रवण-पठन-मनन आदि सब होता है, परन्तु अंतर में उस शुभ भाव से संतुष्ट नहीं हो जाना चाहिये। इस कार्य के साथ ही ऐसा खटका रहना चाहिये कि यह सब है किन्तु मार्ग तो कोई अलग ही है। शुभाशुभ भाव से रहित मार्ग भीतर है-ऐसा खटका तो साथ ही लगा रहना चाहिये। -बहिनश्री के वचनामृत 1. vowels 2.pronounciation 3.devoid 4.achieve 5.part 6. seated 7. infinity 8. beyond-senses 9.experience 10. sequence