Book Title: Samkit Pravesh - Jain Siddhanto ki Sugam Vivechana
Author(s): Mangalvardhini Punit Jain
Publisher: Mangalvardhini Foundation
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________________ 106 समकित-प्रवेश, भाग-5 संयोगवश' यदि वह हमारे अनुसार चले तो हमें उनसे राग होता है और न चले तो द्वेष। इसप्रकार स्वयं में लीन न हो कर दूसरों में लीन होना ही राग-द्वेष है। उसी प्रकार यदि वह हमारे अनुसार चले तो हमें मान होता है कि देखो सब कुछ मेरे हिसाब से ही चलता है और लोभ होता है कि आगे भी सब कुछ मेरे हिसाब से ही चलता रहे। यदि वे हमारे अनुसार नहीं चलते तो क्रोध होता है या फिर किसी भी तरह से छल-कपट करके उनको अपने अनुसार चलाने की माया (मायाचारी) होती है। यह क्रोध, मान, माया व लोभ ही तो कषाय हैं। इसतरह स्वयं में लीन न होकर दूसरों में लीन होना ही कषाय है। प्रवेश : और यह अशुद्ध-भाव क्या है ? समकित : स्वयं में लीन न हो कर, दूसरों में लीन होकर दूसरों का कुछ करने का भाव यानि कि दूसरों का अच्छा करने का भाव (शुभ-भाव) या फिर दूसरों का बुरा करने का भाव (अशुभ-भाव) दोनों ही अशुद्ध भाव हैं। प्रवेश : आपने तो शुभ और अशुभ भाव, दोनों को एक ही श्रेणी (अशुद्ध भाव) में रख दिया ? समकित : मैंने नहीं स्वयं भगवान ने रखा है और क्यों न रखें ? परमार्थ-से दोनों भाव एक ही श्रेणी के तो हैं। प्रवेश : परमार्थ मतलब ? समकित : परमार्थ यानि परम्-अर्थ यानि कि मूल-प्रयोजन। मोक्षार्थी का मूल-प्रयोजन तो स्वयं में पूर्ण लीन होना ही है और वही पूर्ण शुद्ध-भाव है। जबकि शुभ-अशुभ भाव के समय जीव स्वयं में लीन न होकर दूसरों में लीन रहता है इसलिए वह अशुद्ध-भाव हैं। प्रवेश : फिर तो हम शुभ-भाव न करके अशुभ-भाव ही करेंगे? 1.coincidently 2.attachment 3.malice 4.pride 5.greed 6.deceit 7.actually 8.category 9.supreme-purpose 10.completely