Book Title: Samkit Pravesh - Jain Siddhanto ki Sugam Vivechana
Author(s): Mangalvardhini Punit Jain
Publisher: Mangalvardhini Foundation
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________________ समकित-प्रवेश, भाग-6 171 ग्रैवेयक तक भी चले जाते हैं और कषायों को दबाकर गृहीत मिथ्यादृष्टि अन्य मत के साधु भी बारहवें स्वर्ग तक चले जाते हैं। दोनों ही निश्चय सम्यकदर्शन-ज्ञान-चारित्र से रहित होने के कारण यानि कि मिथ्यात्व और कषायों का अभाव न कर पाने के कारण संसार में ही भटकते रहते हैं, मोक्ष नहीं पाते और कहा भी हैभोगि पुण्य फल हो इक इंद्री, क्या इसमें लाली। कुतबाली दिन चार वही फिर, खुरपा अरु जाली।। प्रवेश : भाईश्री ! बंध तत्व संबंधी भूल ? समकित : बंध तत्व संबंधी भूल- जैसा कि हमने कषाय के स्वरूप की चर्चा में देखा कि कषाय के अंतरंग स्वरूप को यह जीव समझता नहीं और मात्र बाह्य क्रोधादि को ही कषाय मानता है और बाह्य क्रोधादि कषायों में तीव्र-कषाय रूप अशुभ-राग (पाप-भाव) को तो बंध का कारण जानता है, मानता है लेकिन मंद-कषाय यानि कि शुभ-राग (पुण्यभाव) को न बंध का कारण जानता है, न मानता है। जबकि हम पहले ही देख चुके हैं कि बेड़ी चाहे लोहे की हो या सोने की, बाँधने का काम दोनों ही करती हैं। यही इसकी बंध तत्व संबंधी भूल है। प्रवेश : भाईश्री ! और...? समकित : बाकी संवर, निर्जरा व मोक्ष तत्व संबंधी भूलें हम कल पढ़ेगे। कोई बाँधने वाला नहीं है, अपनी भूल से बँधता है। जो छूटने के लिये ही जीता है वह बंधन में नहीं आता। एक को उपयोग में लायेंगे तो सब शत्रु दूर हो जायेंगे। शास्त्रों में मार्ग कहा है, मर्म नहीं कहा। मर्म तो सत्पुरुष के अन्तरात्मा में रहा है। __-श्रीमद् राजचन्द्र वचनामृत 1.actual 2.external