Book Title: Samkit Pravesh - Jain Siddhanto ki Sugam Vivechana
Author(s): Mangalvardhini Punit Jain
Publisher: Mangalvardhini Foundation
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________________ गुण-व्रत और शिक्षा-व्रत समकित : पिछले पाठ में हमने दूसरी प्रतिमाधारी श्रावक के बारह व्रतों में से पाँच अणुव्रत देखे। आज हम बाकी रहे तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रतों की चर्चा करेंगे। गुणव्रत : गुण-व्रतः अणुव्रतों की रक्षा और उनमें वृद्धि के लिये तीन गुणव्रत होते हैं। गुणों की रक्षा और वृद्धि करने वाले होने के कारण ही इन्हें गुणव्रत कहते हैं। यह तीन प्रकार के हैं: 1. दिग्वतः दूसरी प्रतिमा में राग (कषाय) की मंदता अधिक हो जाने से यह श्रावक दशों दिशाओं में आने-जाने की सीमा जीवन-भर के लिये निश्चित कर लेता है। जैसे पूर्व दिशा में सम्मेदशिखर से, पश्चिम में गिरनार से, उत्तर में अष्टापद से और दक्षिण में जैनबद्री से आगे नहीं जाऊँगा आदि। 2. देशव्रतः दिग्व्रत में बाँधी गयी सीमा को स्थान, समय आदि की मयोदा पूर्वक और भी सीमित कर लेना। जैसे गिरनार में भी फलाना मंदिर या फलानी गली, बाजार तक ही जाऊँगा, उससे आगे नहीं। उधर भी रुकूँगा तो इतने दिन या इतने धंटे ही रकूँगा, उससे ज्यादा नहीं। 3. अनर्थदण्ड-त्याग व्रतः अनर्थ यानि कि बिना मतलब (प्रयोजन)। बिना मतलब ही पाप कार्यों को करना अनर्थदण्ड है। अनर्थदण्ड कई प्रकार के होते हैं, उनमें से कुछ निम्न हैं: अ) अपध्यान अनर्थदण्डः बिना मतलब ही किसी की बर्बादी, हारजीत आदि का विचार करते रहना। 1.directions 2.limit 3.life-time 4.fix 5.limit