Book Title: Samkit Pravesh - Jain Siddhanto ki Sugam Vivechana
Author(s): Mangalvardhini Punit Jain
Publisher: Mangalvardhini Foundation
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________________ 218 समकित-प्रवेश, भाग-7 उत्पन्न ही नहीं होती। लेकिन जब उनका उपयोग' आत्मा से बाहर रहता है यानि कि जब वह छठवें गुणस्थान में रहते हैं तो उनको तत्वों का चितवन (विचार) चलता रहता है कि-मैं जीव तत्व हूँ और यह स्पर्श, रस, गंध, वर्ण, शब्द आदि तो पुद्गल (अजीव) के गुण हैं। यह मेरे नहीं, मुझे हितकारी नहीं। इनको अपना मानना मिथ्यादर्शन है और इनमें लीन-तल्लीन-तन्मय रहना यानि कि इनमें राग करना मिथ्याचारित्र (अचारित्र) है, जो कि दुःख रूप है व संसार में भटकने का कारण है। मुनिराज को ऐसे तत्व चिंतवन् (विचार) के कारण छठवें गुणस्थान में भी पाँच-इंद्रिय के विषयों-की-इच्छा रूप अशुभ-राग (पाप-भाव) उत्पन्न नहीं होता। प्रवेश : धन्य मुनि दशा ! मुनिराज जो साक्षात् चलते-फिरते सिद्ध हैं। समकित : हाँ, सिद्धों की श्रेणी में आने वाला जिनका नाम है, जग के उन सब मुनिराजों के मेरा नम्र प्रणाम है ! प्रवेश : भाईश्री ! कृपया छः आवश्यक का स्वरूप और समझाईये। समकित : ठीक है कल ! मुनिराज कहते हैं:-चैतन्यपदार्थ पूर्णतासे भरा है। उसके अन्दर जाना और आत्मसम्पदा की प्राप्ति करना वही हमारा विषय है। चैतन्य में स्थिर होकर अपूर्वता की प्राप्ति नहीं की, अवर्णनीय समाधि प्राप्त नहीं की , तो हमारा जो विषय है वह हमने प्रगट नहीं किया। बाहर में उपयोग आता है तब द्रव्य-गुण-पर्यायके विचारों में रुकना होता है, किन्तु वास्तव में वह हमारा विषय नहीं है। आत्मा में नवीनताओं का भण्डार है। भेदज्ञान के अभ्यास द्वारा यदि वह नवीनता-अपूर्वता प्रगट नहीं की, तो मुनिपने में जो करना था वह हमने नहीं किया। -बहिनश्री के वचनामृत | 1.attention 2.beneficial 3.materialistic-desires