Book Title: Samkit Pravesh - Jain Siddhanto ki Sugam Vivechana
Author(s): Mangalvardhini Punit Jain
Publisher: Mangalvardhini Foundation
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________________ 206 समकित-प्रवेश, भाग-7 प्रवेश : पाँचवें गुणस्थान वाले श्रावक की प्रतिमायें, व्रत, दैनिक षट-कर्म तो अच्छी तरह से समझ में आ गये। अब कृपया छठवें-सातवें गुणस्थान में झूलने वाले मुनिराजों के महाव्रतों का स्वरूप और समझा दीजिये? समकित : हमारा अगला विषय यही है। श्रावक तो हमेशा देवपूजा करे, देव अर्थात सर्वज्ञदेव, उनका स्वरूप पहचानकर उनके प्रति बहुमानपूर्वक रोज-रोज दर्शन-पूजन करे। पहले ही सर्वज्ञ की पहचान की बात कही थी। स्वयं ने सर्वज्ञ को पहचान लिया है और स्वयं सर्वज्ञ होना चाहता है वहाँ निमित्त रूप में सर्वज्ञता को प्राप्त अरहंत भगवान के पूजन-बहुमान का उत्साह धर्मी को आता है। जिन मन्दिर बनवाना, उसमें जिनप्रतिमा स्थापन करवाना, उनकी पंचकल्याणक पूजा-अभिषेक आदि उत्सव करना, ऐसे कार्यों का उल्लास श्रावक को आता है, जो उसका निषेध करे तो मिथ्यात्व है और मात्र इतने शुभराग को ही धर्म समझे तो उसको भी सच्चा श्रावकपना होता नहीं-ऐसा जानो। सच्चे श्रावक को तो प्रत्येक क्षण पूर्ण शुद्धात्मा के श्रद्धानरूप सम्यकत्व वर्तता है, और उनके आधार से जितनी शुद्धता प्रकट हुई उसे ही धर्म जानता है। ऐसी दृष्टिपूर्वक वह देव पूजा आदि कार्यों में प्रवर्तता है। जिनेन्द्र की मूर्ति साक्षात् जिनेन्द्र तुल्य वीतराग भाववाही होती है। जिस अपेक्षा से कहा हो वह अपेक्षा जाननी चाहिये। जिन प्रतिमा है, उसकी पूजा, भक्ति सब है। जब स्वरूप में स्थिर नहीं हो सकता तब, अशुभ से बचने के लिये ऐसा शुभ भाव आये बिना नहीं रहता। 'ऐसा भाव आता ही नहीं' ऐसा जो माने उसे वस्तु स्वरूप की खबर नहीं है, और आयें इसलिये 'उससे धर्म है'- ऐसा माने तब भी वह बराबर नहीं है।..... देव-शास्त्र-गुरु की भक्ति, पूजा, प्रभावनादि के शुभ-भाव जैसे ज्ञानी को होते हैं वैसे अज्ञानी को होते ही नहीं। -गुरुदेवश्री के वचनामृत