Book Title: Samkit Pravesh - Jain Siddhanto ki Sugam Vivechana
Author(s): Mangalvardhini Punit Jain
Publisher: Mangalvardhini Foundation
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________________ 182 समकित-प्रवेश, भाग-6 चौथे आदि गुणस्थानों में होने वाले निश्चय धर्म-ध्यान के समय जीव शुद्ध-भाव का वेदन कर रहा होता है इसलिये द्रव्यानुयोग इन है और जो जीव के ज्ञान (उपयोग) का विषय नहीं बनता, ऐसे शुभ-भाव रूप सूक्ष्म रागांश (बाकी रहा राग) जो कि केवलीगम्य होने से, करणानुयोग का विषय है, अतः करणानुयोग इन गुणस्थानों में होने वाले निश्चय धर्म-ध्यान को शुभ-भाव रूप बताता है। प्रवेश : दोनो में से सच्चा कथन कौनसा है ? समकित : अपनी-अपनी अपेक्षा दोनों ही कथन' सच्चे हैं। जैनी को तो अनेकांत और स्याद्वाद की ही शरण है, लेकिन एकांतवादी या तो करणानुयोग की बात का एकांत (पक्ष) कर लेता है या फिर द्रवायानुयोग की बात का। करणानुयोग का पक्षपाती चौथे आदि गुणस्थानों में होने वाले धर्म-ध्यान में शुद्ध-भाव का सर्वथा अभाव मानने लगता है और द्रव्यानुयोग का पक्षपाती वहाँ अबुद्धिपूर्वक होने वाले सूक्ष्म शुभ-रागांश का सर्वथा अभाव मानने लगता है। दोनों ही एकांतवादी मिथ्यादृष्टि प्रवेश : ओह ! चार अनुयोगों की विषय-वस्तु और कथन शैली का ज्ञान न होने के कारण जीव का कितना नुकसान होता है यह बात आज समझ में आयी है। इसीलिये अनेक शास्त्रों के जानकार भी चार अनयोगों का अर्थ निकालने की पद्धति से अनजान होने के कारण एकांतवादी बने रहते हैं। स्वयं भी कुमार्ग में लगते हैं और दूसरो को भी लगाते हैं। समकित : हाँ ! चलो अब बहुत देर हो चुकी है। तुमने जो पाँचवें गुणस्थान वाले श्रावक की प्रतिमाओं के बारे में पूछा है, वह कल समझाऊँगा। तीर्थंकर देव की दिव्यध्वनि जो कि जड़ है उसे भी कैसी उपमा दी है ! अमृत वाणी की मिठास देखकर द्राक्षे शरमाकर वनवास में चली गई और और इक्षु अभिमान छोड़कर कोल्हू में पिल गया ! ऐसी तो जिनेन्द्र वाणी की महिमा गायी है फिर जिनेन्द्र देव के चैतन्य की महिमा का तो क्या कहना ! -बहिनश्री के वचनामृत 1.narration 2.completely 3.unaware