Book Title: Samkit Pravesh - Jain Siddhanto ki Sugam Vivechana
Author(s): Mangalvardhini Punit Jain
Publisher: Mangalvardhini Foundation
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________________ समकित-प्रवेश, भाग-6 175 मोक्ष तत्व संबंधी भूलः उसी प्रकार मोक्ष के भी वास्तविक स्वरूप को न ही जानता है, न ही मानता है। कहता है कि मोक्ष में स्वर्ग से अनंत-गुना' सुख है, जबकि स्वर्ग का सुख तो आकुलता वाला होने से सुखाभास है, इंद्रिय-जनित है, पराधीन' व क्षणिक है। वास्तव में दुःख ही है। जबकि मोक्ष सुख तो आकुलता बिना का होने से सच्चा सुख है, अतींद्रिय है, स्वाधीन और शाश्वत है, परमानंद है, लेकिन यह अज्ञानी जीव तो यहाँ तक भूल करता है कि स्वर्ग और मोक्ष दोनों ही का कारण शुभ-भाव को मानता है। यह विचार नहीं करता कि एक ही भाव का फल संसार और मोक्ष दोनों कैसे हो सकते हैं ? जबकि, शुभ-अशुभ भाव दानों ही संसार के कारण हैं और मोक्ष का कारण तो शुद्ध-भाव (वीतरागता) है। प्रवेश : यह तो समझ में आ गया कि शुद्ध (वीतराग) भाव ही संवर, निर्जरा और मोक्ष का कारण है, लेकिन अनेक शास्त्रों में शुभ भावों का भी उपदेश आता है, तो आखिर कौनसी बात सही है और हमको क्या करना है, यह उलझन खड़ी हो जाती है ? समकित : यह उलझन चार अनुयोगों का स्वरूप, प्रयोजन व उनका अर्थ निकालने की पद्धति" न आने के कारण खड़ी होती है। हमारा अगला पाठ इसी संबंध में है। ज्ञानी के अभिप्राय में राग है वह जहर है, काला साँप है। अभी आसक्ति के कारण ज्ञानी थोड़े बाहर खड़े हैं, राग है, परन्तु अभिप्राय में काला साँप लगता है। ज्ञानी विभाव के बीच खड़े होने पर भी विभाव से पृथक् हैं, न्यारे हैं। -बहिनश्री के वचनामृत 1.infinite-times 2.delusion of bliss 3.sensual 4.dependent 5.momentary 6.beyond-senses 7.independent 8.eternal 9.blissful 10.confusion 11.technique