Book Title: Samkit Pravesh - Jain Siddhanto ki Sugam Vivechana
Author(s): Mangalvardhini Punit Jain
Publisher: Mangalvardhini Foundation
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________________ 170 समकित-प्रवेश, भाग-6 नहीं सकती। वैसे भी जिनमत' में और लोक में भी पहले बड़ा दोष छुड़ाकर फिर पीछे छोटा दोष छुड़ाने की पद्धति है। लौकिक पद्धति तो इस जीव को बराबर ख्याल रहती है, लेकिन जिनमत की पद्धति का लोप करता है। प्रवेश : यह तो सही है लेकिन फिर भी यदि कोई जीव मिथ्यात्व के बड़े दोष को दूर करने में असमर्थ है, वह यदि कषाय आदि का छोटा दोष दूर करने का प्रयास (कोशिश) करे तो क्या बुराई है ? दोष तो जितना दूर हो, उतना अच्छा है। समकित : बात प्रयास करने या न करने की नहीं है। बात तो यह है कि मिथ्यात्व का दोष दूर हुये बिना कषाय (अविरति आदि) का दोष असल में दूर होता ही कहाँ है ? इसीलिये तो करणानयोग के अनुसार भी पहले जीव के मिथ्यात्व के अभाव रूप चौथा गुणस्थान प्रगट होता है, उसके बाद अविरति, प्रमाद, कषाय व योग के अभाव रूप क्रमशः पाँचवें, सातवें, बारहवें और चौदहवें गणस्थान प्रगट होते हैं। प्रवेश : और इसीलिये मिथ्यात्व के अभाव रूप सम्यकदर्शन को मोक्ष-महल की पहली सीढ़ी कहा है ? समकित : हाँ, जैसे पहली सीढ़ी चढ़े बिना दूसरी, तीसरी, चौथी आदि सीढ़िया नहीं चढ़ी जा सकतीं वैसे ही मिथ्यात्व के अभाव के बिना अविरति, प्रमाद, कषाय और योग का अभाव नहीं किया जा सकता। प्रवेश : लेकिन बहुत से जीवों के मिथ्यात्व के रहते हुये भी कषाय आदि का अभाव होता देखा जाता है ? समकित : वह कषाय का अभाव नहीं, कषाय की मंदता है। प्रवेश : मतलब? समकित कषाय की मंदता तो किन्हीं-किन्हीं जीवों के सहज ही हो जाती है। कषाय की अति-मंदता के कारण ही मिथ्यादृष्टि द्रव्यलिंगी मुनि नवमें 1.jainism 2.social-world 3.system 4.omission 5.respectively 6.step 7.automatically