Book Title: Samkit Pravesh - Jain Siddhanto ki Sugam Vivechana
Author(s): Mangalvardhini Punit Jain
Publisher: Mangalvardhini Foundation
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________________ 152 समकित-प्रवेश, भाग-5 लेकिन रुचि लग जाने के बाद जब वह सामने वाला व्यक्ति चाय पीयेगा तब चाय का असली मजा लेने कि लिये उसको चाय में पड़ी एक-एक सामग्री नहीं बल्कि अखण्ड चाय का स्वाद लेना होगा। एक-एक सामग्री (भेद) के स्वाद पर ज्ञान व ध्यान केन्द्रित करने से चाय का असली मजा नहीं आ सकता। उसीप्रकार जब तक अखण्ड-अभेद शुद्ध आत्मा का अनुभव (ज्ञानश्रद्धान-लीनता) न हो तब तक अनेक खण्ड-खण्ड यानि कि गुणभेद आदि के द्वारा शुद्धात्मा का स्वरूप समझकर विचारकर, अखंड अभेद शद्ध आत्मा की महिमा लानी चाहिये, उसकी अतिशय रुचि लगानी चाहिये क्योंकि रुचि पलटे बिना उपयोग (ज्ञान-ध्यान) नहीं पलटता। प्रवेश : मतलब? समकित : इसका मतलब यह हुआ कि अखंड-अभेद शुद्धात्मा का स्वरूप समझने-समझाने के लिये, उसकी महिमा लाने के लिये, उसकी अतिशय रुचि लगाने के लिये अखण्ड-अभेद वस्तु के स्वरूप का खण्ड-खण्ड और भेदों द्वारा कथन करने वाला व्यवहार नय प्रयोजनवान (उपयोगी) है। लेकिन व्यवहार नय के कथन के माध्यम से अखंड-अभेद शुद्धात्मा का स्वरूप समझकर, उसकी महिमा ख्याल में आकर, उसकी अतिशय रुचि लगने के बाद उस अखंड-अभेद शुद्धात्मा का अनुभव (ज्ञान-श्रद्धान-लीनता) करने के लिये एकमात्र परमशुद्ध निश्चय नय (शुद्धनय) ही प्रयोजनवान (उपयोगी) है, जो कि आत्मा को पर द्रव्य से भिन्न, पर्यायों से अन्य व गुणभेद से पार जानता है। प्रवेश : ओह ! अब समझमें आया। समकित : इसीलिये हमें जब तक अपने लक्ष्य की प्राप्ति न हो जाये तब तक दोनों नयों को नहीं छोड़ना चाहिए क्योंकि यदि व्यवहार नय को छोड़ोगे तो भगवान के उपदेश का प्रचार-प्रसार अर्थात उसको समझने- समझाने का कार्य असंभव हो जायेगा और यदि निश्चय नय को छोड़ोगे तो आत्मतत्व (तत्वज्ञान) की उपलब्धि' असंभव हो जायेगी। 1.whole/integrated 2.focus 3.achievement