Book Title: Samkit Pravesh - Jain Siddhanto ki Sugam Vivechana
Author(s): Mangalvardhini Punit Jain
Publisher: Mangalvardhini Foundation
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________________ समकित-प्रवेश, भाग-5 153 प्रवेश : तत्वज्ञान का अर्थ सिर्फ एक आत्म-तत्व का ज्ञान है ? हमने तो सुना था तत्व (पदार्थ) नौ होते हैं ? समकित : एक ही बात है। प्रवेश : कैसे? समकित : हमारा अगला विषय यही है। हाथी के दाँत दिखाने के अलग और चबाने के अलग। दिखाने के दाँत बड़े होते हैं और वे चित्र-कारी में तथा शोभा बढ़ाने में काम आते हैं चबाने के दाँत छोटे होते हैं और वे खाने के काम आते हैं। शास्त्र तो 'दादाजी' की चिट्ठी जैसे हैं, उनका आशय समझने की कुशलता प्राप्त करनी चाहिये। शास्त्र में व्यवहार के कथन अनेक होते हैं परन्तु जितने व्यवहार के और निमित्त के कथन हैं वे अपने गुण (प्रगट करने) में काम नहीं आते किन्तु परमार्थ को समझाने में काम आते हैं। आत्मा परमार्थतः पर से भिन्न हैं उसकी श्रद्धा करके, उसमें लीन हो तो आत्मा को मस्ती चढ़े। जो परमार्थ है वह व्यवहार में-समझने में काम नहीं आता, किन्तु उसके द्वारा आत्मा को शान्ति होती है। यह प्रगट नय-विभाग है। जिस प्रकार लोक-व्यवहार में ननिहाल के गाँव के किसी विशेष व्यक्ति को 'मामा' कहते हैं परन्तु वह सच्चा मामा नहीं है, कथन मात्र ‘कहने का मामा' है उसी प्रकार जिसे आत्मा की श्रद्धा, ज्ञान एवं रामणतारूप निश्चय 'धर्म' प्रगट हुआ हो उस जीव के दया-दानादि शुभराग को 'कहने का मामा' की भाँति व्यवहार से 'धर्म' कहा जाता है। इस प्रकार 'धर्म' के कथन के निश्चय-व्यवहार उन दोनों पक्ष को जानना उसका नाम दोनों नयों का ‘ग्रहण करना' कहा है। वहाँ व्यवहार को अंगीकार करने की बात नहीं है।... -गुरुदेवश्री के वचनामृत ज्ञानी द्रव्य के आलम्बन के बल से, ज्ञान में निश्चय-व्यवहार की मैत्री पूर्वक, आगे बढ़ता जाता है और चैतन्य स्वयं अपनी अद्भुतता में समा जाता है। -बहिनश्री के वचनामृत