Book Title: Samkit Pravesh - Jain Siddhanto ki Sugam Vivechana
Author(s): Mangalvardhini Punit Jain
Publisher: Mangalvardhini Foundation
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________________ 120 समकित-प्रवेश, भाग-5 निःशंकित जिनेन्द्र भगवान के वचनों में शंका न करना निःकांक्षित धर्म के फल में सांसरिक-सुखों की कामना न करना निर्विचिकित्सा धर्मात्माओं के शरीर के मल को देख घृणा न करना अमूढ़दृष्टि सच्चे और झूठे तत्वों की पहिचान रखना। उपगृहन अपने गुणों दूसरों के अवगुणों को उजागर न करना स्थितिकरण धर्म से डिगते हुये जीव को धर्म में दृढ़ करना वात्सल्य साधर्मी पर निस्वार्थ-प्रीति रखना प्रभावना जिन धर्म को कलंकित न करना, जिन-धर्म की शोभा में वृद्धि करना प्रवेश : क्या अविरत् सम्यकदृष्टि अन्याय', अनीति व अभक्ष्य का त्यागी होता है ? समकित : अविरत् सम्यकदृष्टि सामान्य रूप से स्थूल अन्याय, अनीति, अभक्ष्य का सेवन नहीं करता, लेकिन उसको इनके त्याग की प्रतिज्ञा नहीं होती। प्रवेश : और देश-व्रती श्रावक ? समकित : इसीतरह देश-व्रती श्रावक को बाकी रह गये राग में शुभ व अशुभ राग दोनों का अंश बराबर होता है। इसलिये उसको अणुव्रत व प्रतिमायें आदि पालने का सहज शुभ राग आये बिना नहीं रहता जिसे व्यवहार देश चारित्र कहते हैं। सकल-व्रती मुनिराज को बाकी रह गये राग सिर्फ शुभ राग रूप है। अशुभ का अंश उसमें नहीं है इसलिये उनको महाव्रत और मूल गुणों को पालने का शुभ राग आये बिना नहीं रहता जिसे व्यवहार सकल चारित्र कहते हैं। प्रवेश : आत्मलीनता/वीतरागता को चारित्र कहा, यह तो समझ में आता है लेकिन शुभ राग को चारित्र क्यों कहा ? आखिर राग तो राग ही है भले ही शुभ ही क्यों न हो ? 1.injustice 2.immortality 3.fraction