Book Title: Samkit Pravesh - Jain Siddhanto ki Sugam Vivechana
Author(s): Mangalvardhini Punit Jain
Publisher: Mangalvardhini Foundation
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________________ 138 समकित-प्रवेश, भाग-5 2. अधर्म द्रव्य पर चलते हुये जीव और पुद्गल के रुकने' (स्थिति) में अनुकूल होने का आरोप आता है तो उनके गमन में अनुकूल होने का आरोप उसपर कैसे आये? 3. आकाश द्रव्य लोक के बाहर अलोक में भी पाया जाता है लेकिन जीव और पुद्गल लोक की सीमा के अंदर लोकाकाश में ही गमन करते हैं। यदि आकाश द्रव्य पर जीव और पुद्गल के गमन में अनुकूल होने का आरोप आये तो जीव और पुद्गल का लोक के बाहर अलोक में भी गमन सिद्ध हो जायेगा जो कि प्रत्यक्ष-विरुद्ध है। इसतरह सिर्फ धर्म द्रव्य ही ऐसा है जिस पर यह आरोप व्यवहार से हो सकता है। इसलिये धर्म द्रव्य ही स्वयं अपनी योग्यता से चलते हुये जीव और पुद्गल के गमन में निमित्त कहलाता है। अन्य द्रव्य नहीं। इसी तरह अधर्म, आकाश व काल द्रव्य के संबंध में भी घटा लेना चाहिए। निश्चय से एक द्रव्य दूसरे द्रव्य की क्रिया में अनुकूल नहीं है। एक द्रव्य को दूसरे द्रव्य की क्रिया में अनुकूल कहना व्यवहार है। लेकिन ध्यान रहे ऐसा कहना व्यवहार है लेकिन ऐसा यथार्थ मानना मिथ्यात्व प्रवेश : कृपया निश्चय-व्यवहार के स्वरूप को विस्तार से समझा दीजिये। समकित : आज नहीं कल। शास्त्र में दो नयों की बात होती है। एक नय तो जैसा स्वरूप है वैसा ही कहता है और दूसरा नय जैसा स्वरूप हो वैसा नहीं कहता, किन्तु निमित्तादि की अपेक्षा से कथन करता है। आत्मा का शरीर है, आत्मा के कर्म हैं, कर्म से विकार होता है- यह कथन व्यवहार का है, इसलिये इसे सत्य नहीं मान लेना... व्यवहार नय स्वद्रव्य-पर द्रव्य को व उनके भावों को व कारण-कार्यादिक को किसी को किसी में मिलाकर निरूपण करता है...! -गुरुदेवश्री के वचनामृत 1.stoppage 2.boundaries 3.prove 4.non-evident 5.blame 6.ability 7.functioning